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________________ दायक होता है; जबकि बलपूर्वक छोने हुए धन या वृत्ति स्वतः समाप्त हो सकती है । भले ही विवशता से धनमुचन जीवन भर संतप्त करता है। पदार्थों का ग्रहण होता हुआ दिखाई पड़े या न भी इस संताप में व्यक्ति झुलसता रहता है एवं शेष धन पड़े । प्रश्न सामग्री के सद्भाव का या प्रभाव का भी प्रेमपूर्वक उपभोग नहीं कर सकता । यह है का नहीं, वृत्ति अथवा भावों का है। जीवन भावों परिग्रह का कटुफल । विषभक्षण एक बार प्राण- से सुखी, भावों से दुखी होता है। ऐसा भी देखने हरण करता है, परन्तु परिग्रह का विष जीवन भर में आता है कि कोई न्यूनता में भी संतुष्ट दिखाई तड़पा कर मरण कराता है। प्राणी जीवन-मरण पड़ता है, तो कोई कोट्याधीश होने पर भी चैन की के चक्र में निरंतर पिसता हुआ भी पर-ग्रहण की सांस नहीं ले पाता । अतएव इस स्वीकरण में वृत्ति को नहीं त्यागता। इस विष की ऐसी ही कोई बाधा नहीं कि परिग्रहण वृत्ति आत्मविकास अनोखी लहर है । आत्मपतन या संसरण के मूल में प्रथम व अतिम महान् बाधा है। में परिग्रह में प्रासक्ति ही वह विष है, जो समस्त क्लेशों का उत्पादक है । परिग्रह की अपर संज्ञा आत्मोत्कर्ष के इच्छुक व्यक्ति परिग्रह से बचते लोभ भी है। हैं। यदि वे समस्त सामग्री का परिहार नहीं करते, तो यह उनकी आत्मिक निर्बलता है, जिसे वे भली अज्ञान : दुःख में भी सुख की कल्पना भांति जानते व स्वीकार करते हैं। भूल-स्वीकरण परिग्रह शब्द से स्पष्ट बोध होता है कि अपने के कारण वे तटस्थवृत्ति का निरंतर अभ्यास करते से अतिरिक्त वस्तु का ग्रहण ही परिग्रह है। यह हुए कालांतर में अभ्यस्त हो समस्त परिग्रह का भी अनुभव में आता है कि शरीर से पृथक कोई परिहार कर स्वसंस्थित हो जाते हैं एवं पुनः संसरण अति सूक्ष्म वस्तु है, जिसके हाथ पैर जैसे कोई नहीं करते। .. अंग नहीं हैं । अंग-प्रत्यंग रूप रचना, आकार भूमिका : साधना की . प्रकार शरीर का है। किसी वस्तु के अधिग्रहण मुचन की क्रिया शारीरिक होती है । शरीर - अहं का विसर्जन किये बिना साधक अपने स्थित आत्मा उस प्रकार के केवल भाव करता है। उत्कृष्ट ध्येय को उपलब्ध नहीं होता। संकीर्णता शारीरिक क्रिया होते हुये भी शरीर अचेतन होने का उल्लंघन कर अज्ञान अन्य प्राग्रहों का परिहार से भाव शून्य है। भाव चेतन तत्व में ही होते हैं। कर अात्मस्वरूप की विशालता का अवलोकन भाव ज्ञान का प्रकार है। चाहे यह ज्ञान रूप हो करने पर अहं स्वयमेव समाप्त हो जाता है। तभी या अज्ञान रूप । ज्ञान ही चेतन-अचेतन तत्व के अन्य पदार्थों की आशा भी टूट जाती है। पृथक्त्व को सिद्ध करता है। प्रात्मा ज्ञान का आत्मविश्वास बाल-रवि की तरह उदित होकर मात्र जानने रूप उपयोग न कर अपने स्वभाव के शनैः शनैः जाज्वल्यमान हो जाता है। अंतर में विपरीत पदार्थ-ग्रहण के भाव कर दुखी होता है समता प्रवाहित होने लगती है । यह परमोत्कृष्ट और अज्ञानता की चरम सीमा कि दुख को भी परमात्मस्वरूप अवस्था है। परं इसका अभ्युदय गार्हस्थ्य जीवन में होना असंभव नहीं है। यद्यपि सुख मान लेता है। गृहत्यागी साधक (साधु) लोक जीवन से जुड़ा नहीं मात्मविकास की बाधा होता तथापि लोक में उसके आचरण. वाणी ___ यदि हम आत्म-स्वरूप से अवगत हो पात्मा का महत्वपूर्ण स्थान है । वे मार्गदर्शक की संपूर्ति का सामीप्य कर उसका अनुभवन करें तो परिग्रहण- करते हैं । गृहस्थ साधक का आत्मपक्ष प्रबल होते महावीर जयन्ती स्मारिका 76 1-73 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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