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________________ नैतिकता मूल्यहीन हो गई है। आचरण और समष्टि में व्याप्त हो जाती है। इसीलिये व्यक्ति वाणी दो प्रतिकूल दिशाओं में जा रही है। अतएव को अपने अस्तित्व, महत्ता से परिचित होना होगा। लौकिक उत्थान का मार्ग भी अवरुद्ध हो गया है। स्वसत्ता का भान होने पर अन्य के प्रति सहिष्णुता अपराधी स्वयं हम हैं। कथनी और करनी की आ ही जाती है। संवेदनशील अपने सहश समस्त विषमता चारित्र निर्माण में खाई का कार्य करती चेतन जगत् की महत्ता प्रांकता है । है । व्यष्टि वह इकाई है जिससे समष्टि अनुप्राणित वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भगवान महावीर के होती है । चारित्र व्यष्टि एवं समष्टि के उत्कर्ष का तत्वदर्शन का अनुशीलन अनिवार्य है । शांति सर्वोत्तम साधन है । श्रेष्ठ चारित्र उन्नति के मार्ग स्थापना का यह एक वैज्ञानिक सफल प्रयोग है। का प्रथम चरण है । तदर्थचारित्र निर्माण अनिवार्य इसे कार्यान्वित होना ही चाहिये । समाज विशेष है। सच्चरित्र होने के लिये सदशिक्षा आवश्यक ही नहीं, अपित समग्र विश्व इससे लाभान्वित है। महावीर ने विश्व को या समाज को सुधारने होगा। सामाजिक नियम या राजनीति सब में वर्ग का उपदेश नहीं दिया। उनकी समस्त शिक्षायें या दलगत व्यमोह से हटकर अपरिग्रहवाद को घ्यक्तिगत हैं। वे यह मानकर चले हैं कि भीड़ दृष्टि के सम्मुख रख नीति-निर्धारण से जन-जीवन का अस्तित्व यथार्थ नहीं। व्यक्तियों का समुदाय का स्तर अनायास ही ऊपर उठाया जा सकता है । भीड़ है। यदि प्रत्येक व्यक्ति चारित्रवान् हो तो एवं सर्वांगीण विकास की संभावनायें वृद्धिगत होने भीड़ भी अनुशासनबद्ध होगी । यही अनुशासन लगती हैं । हम अब भी आत्मप्रवंचना से बाज पायें क्रमशः समाज, राष्ट्र व विश्व में फैलकर समता और पूरे मन से आत्म-समर्पित होने का सम्यक् की स्थापना कर सकता है। समष्टि व्यष्टि का प्रयास करें। अपरिग्रहवाद को स्वेच्छा से जीवन विराट रूप है। व्यष्टि से निस्सृत विचारधारा में स्थान दें। mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm महावीर ने कहा गंथाणिमित्त कम्मं कुणइ अकादव्वयंपि गरो१ परिग्रह के निमित्त यह मनुष्य नहीं करने योग्य कार्यों के करने में भी संकोच नहीं करता। महावीर जयन्ती स्मारिका 76 1-75 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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