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________________ ऐसी साधनां हम संसारी. प्राणियों ने कभी नहीं. ही वह संभाव्य है। जैन समाज जो इस तथ्य को की। इसलिये उन्नति की मंजिल भी कोसो दूर रही। भली-भांति जानता है, उसका कर्तव्य हो जाता है जीवन में साधना का महत्वपूर्ण स्थान है । मुक्ति कि वह सुरुचिपूर्वक पर-ग्रहण की वृत्ति का मनपथ की यात्रा साधना से ही प्रारम्भ होती है। वचन-कर्म से परिहार कर आत्मकल्याण में प्रवृत्त इसकी पूर्णता होते ही व्यक्ति पूर्णकाम हो जाता हो अात्मोन्नति का मार्ग प्रशस्त करे। है । पूर्णत्व प्राप्त होते ही वह सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, केवलज्ञानी, अरिहंत, सिद्ध आदि संज्ञा से विभूषित अपने अंतर्जगत् के हम स्वयं नियंता हैं । उसमें किसी का भी अधिकार नहीं है। अन्य रुचियों के होता है। समावेश से अपना ही अंतर अंधकारपूर्ण दिख रहा साधना वाणी से नहीं, आचरण से होती है। है; अतएव अात्मचि जागृत कर परम आलोक आचरण महत्वशाली है । इसके अभाव में वाणी का के दर्शन इष्ट हैं। इसी कारण महावीर महावीर कोई मूल्य नहीं । वाणी फूल की भांति केवल सौरभ कहलाये। उन्हें आदर्श मानने का कारण भी यही महका कर क्षणिक आनन्द देती है, पर तृप्ति का है कि हम भी उस पद पर प्रतिष्ठित होने का स्थायित्व नहीं। तृप्ति तो आचरण रूपी फल के संकल्प लें। प्रास्वादन से होती है । प्रस्तु, आचरण ही विशिष्ट परिग्रह अभिशाप है फलदाता है । इसकी जीवन में नितांत आवश्यकता है । विशुद्ध प्रात्माचरण ही साधना का प्रतिफल ____संसार को पतन-गर्त में गिराने वाला, भेदभाव है । महावीर के पथ का आश्रय ले हम जीवन जियें की कृत्रिम दीवार खड़ी कर समाज में विषमता तो निश्चित ही सुख-शांति का प्रास्वादन कर उत्पन्न करने वाला एकमात्र परिग्रह है। इसकी सकेंगे। ध्येय की उपलब्धि मन-वाणी-कर्म की । शाखा-प्रशाखायें ईर्ष्या, द्वेष, कलह, असंयम आदि सार्थकता है। अनेक रूपों में विभक्त हो फैली हैं। प्रत्येक व्यक्ति इसका शिकार है । जो जितना अधिक सम्पत्तिशाली स्वयं जागें है, वह उतना ही अविवेकी, अंधा है । यद्यपि अपवाद __व्यक्ति युग-युग के अनेक कुसंस्कारों से स्वरूप कतिपय धनी व्यक्ति उदारचेता सद्गृहस्थ कुसंस्कृत अपने यथार्थ स्वभाव को छिपाये हुये है। हैं, जो धन का उपयोग उसी प्रकार करते हैं, जिस "जब जागो तभी सवेरा" की उक्ति के अनुसार प्रकार शौच क्रिया से निवृत्त होने पर मिट्टी से हमारा सवेरा हमारे जागने पर ही होगा । महा- हाया का शुद्धि करना आनवाय हा जाता है ।। वीर जागे तो उनके अंतांगण में तेजोपुज प्रभात परिग्रह का दुष्प्रभाव का ऐसा ही उदय हुआ कि भविष्य में कभी उसके ... आज परिग्रह की बढ़ती लालसाओं ने शासन अस्त होने की सम्भावना ही नहीं रही। प्रत्येक को आपातकालीन स्थिति लाने के लिये विवश व्यक्ति का उदय स्वयं उसके आश्रित है । अन्य किसी कर दिया है। लालसाओं पर नियंत्रण अत्यंत की तिल-तुष मात्र भी अपेक्षा नहीं है । स्वावलंबन प्रयोजनीय है। आवश्यक है। इससे व्यष्टि व समष्टिगत शांति आती है । यदि व्यक्ति महावीर के अपरिग्रहवाद की सांसारिक प्रयोजन पराश्रित है, अतः दुःखपूर्ण सरलता से अवगत हो जाता तो यह स्थिति कदापि है । प्रात्मकार्य स्वतन्त्र है । स्वावलंबन के द्वारा नहीं आती। स्वेच्छा से धन का परित्याग आनंद1-72 महावीर जयन्ती स्मारिका 76 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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