SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ वस्तुओं का वैसा ही ज्ञान होता है, जैसा वे आपाततः उपलब्ध होती हैं। फलतः उनमें ममकार की स्थापना कर उनका अभिनन्दन करता है। इससे अविद्या तथा तृष्णा बलवती हो जाती है एवं समस्त कर्म अकुशल मूल अनुप्राणित होते हैं । यही व्यष्टि का विमूढ़तम आदि रूप है। (२) कल्याणपुथुज्जन-मनुष्य की विमूढ़तम चित्तदशा में किसी कल्याणमित्र के संसर्ग से या पूर्व के कुशल संस्कारों के उदय होने से कदाचित् 'सद्धा, हिरि' तथा 'ओतप्प' नामक तीन मूलभूत प्रवृत्तियों की उद्भावना होती है। इससे चित्त पर व्याप्त आवरण में प्रथम प्रकम्पन होता है। उसे इस प्रकार का विश्वास सा होने लगता है कि 'स्व' के अपरित्यागपूर्वक 'पर' में रति हितकर है। ऐसा होने से उसे कुशलाकुशल मूलों से परिचय मात्र होता है। उसके मानस धरातल पर ऐसा उद्वेग होता है कि “मैं मनुष्य हूँ, प्रज्ञावान् हूँ, मनुष्यभाव अद्भुत घटना है। मेरे लिये अकुशल कर्म करना विहित नहीं है" आदि । इस आत्मगौरव के भाव से वह पाप का परित्याग करता है। उसकी यह प्रवृत्ति आगे बढ़ती है तथा उसमें लोकसम्मान के भाव अङ्करित हो उठते हैं। अब वह लोकमङ्गल की भावना से पापकर्म का परित्याग करता है। ऐसी मनोदशा से युक्त पुरुष को पटिसोतगामी पुग्गल भी कहा जाता है। इसकी 'स्व' की परिधि आवरण रूप से धीरे-धीरे क्षीण होने लगती है तथा आधार के रूप में कार्यरत हो जाती है। 'स्व' का 'पर' में विलय प्रारम्भ हो जाता है तथा वह लोक की छः ईकाइयों तक व्याप्त हो अवरुद्ध हो जाता है। इसी को दिशाप्रत्याच्छादन या दिशापूजन कहते हैं । बुद्ध ने छः इकाइयों को दर्शाते हुए कहा है माता पिता दिसा पुब्बा, आचरिया दक्खिणा दिसा। पुत्तदारा दिसा पच्छा, मितामच्चा च उत्तरा। दासकम्मकरा हेट्ठा, उद्धं समण ब्राह्मणा। एता दिसा नमसेय्या, अलमत्ते कुले गिही ॥ यहाँ दिशा साङ्केतिक शब्द है एवं उनके साथ समाज की छः इकाइयों का कथन व्यवहार परिनिष्ठ है। ... ऐसी मनोदशा सम्पन्न व्यक्तियों द्वारा जो अन्य 'पर' उन्मुख कार्य देखे जाते हैं वे नौ मंगल हैं, जिनका कथन मंगलसुत्त में किया गया है। 'पराभवसुत्त' तथा परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy