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________________ प्राचीन बौद्धों की दृष्टि में व्यष्टि एवं समष्टि डॉ० महेश तिवारी व्यष्टि एवं समष्टि एक मनोवैज्ञानिक अवधारणा है। शब्द की दृष्टि से नवीन होते हुए भी इसमें निहित अर्थ के गमक शब्द प्रारम्भिक बौद्ध चिन्तन में उपलब्ध हैं। बुद्ध ने अपने उपदेशक्रम में जिस प्रश्न पर अधिक बल दिया है, वह है “चित्तविशुद्धि' का प्रश्न । चित्त ही कर्म है एवं इस रूप में वह सत्त्व के सुख दुःख के आह्वान का मूल कारण है। संक्लिष्ट चित्त से मनुष्य दुःखाभिभूत होता है तथा परिशुद्ध चित्त से वह दुःखविरहित होता है। यदि बौद्ध साधना एक ऋजुरेखा है तो उसके प्रारम्भ बिन्दु पर संक्लिष्ट चित्त है तथा पर्यवसान बिन्दु पर परिशुद्ध चित्त है। इन दो बिन्दुओं के मध्य चित्त परिशुद्धि प्रक्रिया का आनुक्रमिक अवचरण होता है। मनुष्य लोक में चित्त की अभिव्यक्ति एक स्वतन्त्र इकाई के रूप में नहीं होती है । वह नाम तथा रूप के संघात के रूप में अभिव्यक्त होती है। इसी संघात का व्यावहारिक अभिधान सत्त्व या मनुष्य है। यह मनुष्य जब संक्लिष्ट चित्त से उपेत रहता है तब वह 'पुथुजन' कहलाता है। जब वह परिशुद्ध चित्त से सम्प्रयुक्त होता है तो वह बुद्ध कहलाता है। इनमें पुथुजन ही व्यष्टि है तथा बुद्ध को समष्टि कहा जा सकता है। व्यष्टि कहने से यहाँ ऐसा पुरुष अभिप्रेत है, जिसके समस्त कार्यकलाप 'स्व' की परिधि में सीमित रहते हैं। जब 'स्व' पूर्णतः 'पर' में विलीन हो जाता है तथा जिसके समस्त कार्यकलाप परार्थ ही होते हैं, तब वह समष्टि कहा जाता है। ये दोनों अवधारणायें जीवन के उदात्त मूल्यों की दिशा में आदि तथा अनन्त बिन्दुओं पर स्थित हैं। इनके मध्य चित्त-विकास की नौ अवस्थायें हैं, जिन्हें नौ विकासोन्मुख मूल्य भी कहा जा सकता है। इस प्रकार की प्रवणता में क्रमशः 'स्व' का आवरण क्षीण होता जाता है। इसका पूर्ण क्षय ही अनावरण 'पर' की अभिव्यक्ति है। इनका संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित प्रकार से है। (१) पुथुज्जन-यह एक ऐसे व्यक्ति का नाम है, जिसे धर्म के स्वरूप का यथार्थावबोध नहीं है । फलतः उसमें 'अहं' तथा 'मम' का प्राबल्य रहता है। उसकी सर्वदा एतादृश अभिव्यक्तियाँ हुआ करती हैं कि यह मेरा पुत्र है, यह मेरा धन है, गृही प्रबजितों में मैं अग्रणी हूँ। सभी कुलों में मेरी पूजा होनी चाहिए, गृही तथा प्रबजित मेरे अनुगामी बनें आदि। उसे धर्मस्वभाव में प्रतिवेध नहीं होने के कारण समस्त परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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