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________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ वर्णी जी : एक युग पुरुष डॉ. आर. डी. मिश्र पूर्व प्राचार्य, सागर (म.प्र.) श्री गणेश प्रसाद वर्णी बुंदेली धरती के महान सपूत थे । वे त्याग और तपस्या की प्रतिमूर्ति एक तितिक्षावान् महापुरुष थे। लोग प्राय: उनके व्यक्तित्व का विवेचन करते हुए उन्हें स्थूल रूप में उनकी जीवन रेखाओं में देखने का प्रयास करते है और रेखांकित करते है, इस तथ्य को उन्होंने जैन धर्म को ग्रहण किया और महान संत बने । किन्तु वास्तव में ऐसे व्यक्तित्वों को न तो किसी सीमा में बांधा जा सकता है । और न ही उन्हें किसी धर्म के परिप्रेक्ष्य में आंका ही जा सकता है क्योंकि जब ऐसे महा मानव धरती पर अवतीर्ण होते है तो उनका लक्ष्य युग मानव को उदबुद्ध करके दिशा देने का होता है अतएव इनको स्थूल जीवन रेखाओं के परे इसी परिप्रेक्ष्य में देखा परखा जाना चाहिए । ऐसे व्यक्ति लौकिक होते हुए भी अपनी अस्मिता में लोकोत्तर बन जाते है वर्णी जी ऐसे ही संत पुरुष थे जिन्होंने अपनी संकल्पशीलता और कर्मचेतना के द्वारा इस धरती को नया स्पंदन देकर प्राणवान बनाया। ऐसे महत् व्यक्तित्वों का जब लोक में अवतरण होता है तब पूरी युग चेतना एक अगड़ाई लेकर जीवंत बन जाती है। वर्णी जी निरभिमानी थे। सरलता, सादगी और सहजता उनकी समूची पूँजी थी। उनकी क्षीण और किसी हद तक कृश काया में असीम आत्मिक बल था और यही उनकी संकल्पशीलता का प्रेरक बना । वे भारतीय मनीषियों की उस संत परम्परा के अनुयायी थे जिन्होंने मानव सेवा और परोपकार का व्रत लेकर अपने जीवन संकल्पों को पूरा किया।हिमालय की कंदराओं में अथवा तपोवन में तपस्या करने वाले ऋषियों की कोटि के मोक्ष के आकांक्षी व्यक्ति वर्णी जी न थे। वे समर्पण और सेवा की संकल्पशीलता लिए ऐसे महामानव थे जो भौतिक जीवन में रहकर भी उसमें लिप्त नहीं होता और निरंतर अपनी व्यक्ति चेतना में गतिमान रहकर मानव सेवा के उच्चाक्षयी, संकल्पों के गंतव्य को पूर्ण करता है । उसकी तपस्या मानव समाज की संघर्ष पूर्ण धरती पर रहती है। यहीं वह अपनी लोकोत्तर छवि की झलक देकर सम्पूर्ण युग को आलोकित कर जाता है। ___ आज जब हम स्वाधीनता प्राप्ति के लगभग पाँच दशक पूरे कर चुके हैं तथा 21 वीं सदी के दरवाजे पर खड़े दस्तक दे रहे है तब ऐसे महनीय पुरुष की जयंती मनाते हुए अनेक प्रश्न हमारे मन मस्तिष्क में कौंध जाते है। हमारा युग आपाधापी का विग्रह, विघटन और सांस्कृतिक क्षरण का है। जीवन के भ्रमों से ग्रस्त पूरी युग चेतना आज भटक गई है और हमारी सारी सांस्कृतिक विरासत पूरी तरह बिखर गयी है। ऐसे विडम्बना पूर्ण क्षणों में वर्णी जी का व्यक्तित्व, यदि हम अंतरंगता के साथ उससे जुड़े तो वह हमारा एक शक्तिवान सबल बन सकता है। ऐसा क्या था उस सहज से दिखने वाले व्यक्तित्व में कि जो अपनी सादगी में भी वह महान बन गया। उनका सम्पूर्ण व्यक्तित्व सराहनीय भी हो सकता है। और अनुकरणीय भी, किन्तु इन सब से हटकर वह अवलोकन और पुनरावलोकन का प्रश्न भी बन सकता है। आज हम जिस गति से भाग रहे है -530 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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