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________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ उसमें हमें न तो ठहरने का अवकाश ही है और न ही थमने की आकांक्षा। ऐसे बेतहाशा भागते हुए मनुष्य को रूककर; एक क्षण बैठकर अपने भीतर टटोलकर अपनी शक्ति सामर्थ्य को पहचानने का निर्देश देने वाला, काया में छोटा किन्तु समुद्र के समान अथाह, असीम विस्तीर्ण व्यक्तित्व था वर्णी जी का। उनका पूरा जीवन संकल्पों का साकार रूप था। वे लोक में रहते थे।किन्तु लोकेषणा के परे उन्होंने मानव और मनुष्यता का बड़ा गहन सूक्ष्म अध्ययन किया था आज से लगभग पचास वर्ष पूर्व के उनके उद्गार कितने प्रासंगिक, अर्थपूर्ण और सटीक बैठते है, आज की युग चेतना में। जबकि उन्होंने अपने वर्तमान से सुदूर अतीत में झांककर युग मानवता को चेतावनी देते हुए कहा था कि “कहाँ गई हमारी निर्भीकता और आत्मशक्ति। आज हम आत्मा की बुलंद आवाज को ठुकराकर मग्न है एक दूसरे की प्रशंसा करने में, चाटुकारिता में। यह सबको खुश रखने की शैली ही कितनी घातक बनेगी निर्भीक भारत के आगामी निर्माण में । अन्याय का प्रतिकार करने की शक्ति का क्षीण होना ही भारत से भारतीयता का विलुप्त होना है।" दरअसल, वर्णी जी केवल आध्यात्मिक संत या धर्मानुयायी ही नहीं थे अपितु वे एक बड़े संस्कृति चेता भी थे जिसने अपने समक्ष के सांस्कृतिक विखराब को देखा था और इसी कारण वैदिक धर्म की पृष्ठभूमि में अहिंसा की वास्तविकता बतलाने वाले जैन धर्म को स्वीकार करके मानव-सेवा का व्रत लिया था। जैन धर्म की आस्था-दीक्षा उनका सांस्कृतिक गंतव्य था। जिसे उन्होंने अपने पुण्यवान् व्यक्तित्व से पूर्ण किया। उनकी जनहितकारी भावना प्राचीन ऋषि के संकल्पों और विश्वासों का आधुनिक रूप था। पराधीन भारत को संकल्पों की वाणी देकर उन्होंने स्वाधीनता की ओर उन्मुख करके उन्हें ऋषि का मंत्र दिया था। जहाँ अहिंसा, दुर्बलता नहीं, अन्याय का प्रतिकार करने वाली मानसिक शक्ति का पर्याय थी, जैन धर्म की इसी अहिंसा शक्ति ने उन्हें आकर्षित किया था ।दीक्षा लेने के लिए और इसी ने उन्हें संवेदनशीलता देकर कर्मशक्ति की प्रेरणा दी थी। जिसके कारण वे मानव सेवा में समर्पित हुए और युग को त्याग तपस्या का एक अभिनव संदेश दिया। स्वाधीन भारत में स्वाधीन चेतना और राष्ट्रीय भावना के प्रति उदासीनता उन्होंने देखी थी और ऐसा लगता है कि इसी भावना ने उन्हें एक नयी कल्पना दी जिसे उन्होंने साकार किया। प्राचीन ऋषियों की संकल्पशीलता से आधुनिक गुरुकुल, विद्यामंदिरों की स्थापना कर एक जाल सा बिछा दिया उन्होंने बुंदेली धरती पर इन शिक्षण संस्थाओं का ।इसी में उन्होंने आगामी भारतीय अस्मिता का पुनरुद्धार देखा । संस्कृत और हिन्दी भाषा ही भारत को समर्थ बना सकती है ।यह उनका विश्वास था, प्राचीन तपोवनी संस्कृति के आधुनिकीकरण के प्रणेता वर्णी जी के व्यक्तित्व के परिप्रेक्ष्य में एक तथ्य और भी चिंतनीय है आज के युग संदर्भ में जबकि हम बेतहाशा भाग रहे है अपने प्रचार-प्रसार के लिए वर्णी जी का तपस्वी व्यक्तित्व हमारे बीच एक प्रेरक उदाहरण है जहाँ उनकी समर्पित संस्थाओं का भूमिपूजन, शिलान्यास, उद्घाटन और शुभारम्भ सब हो गया किन्तु न तो शिलान्यास की पट्टिका का और न ही किसी का नामोल्लेख यह प्रसंग हमें बरवस याद दिलाते है हमारी प्राचीन समृद्ध सांस्कृतिक परम्पराओं का जब जब उद्देश्य महत्वपूर्ण होता था -630 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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