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________________ आगम संबंधी लेख राग द्वेष से संसार भ्रमण भ्रमणकारण दीर्घनेत्र सुबहुतकाल समुद्र में भ्रमण वैसे जीव यह, अज्ञान भ्रम संसार में भ्रमण रागद्वेष रूपी, दीर्घ डोरी दूध में । भ्रमणकर निकले मही, द्रव्यादि रूप समुद्र में ॥ अर्थ : यह जीव अज्ञान से रागद्वेष रूपी दो लम्बी डोरियों की खींचातानी से संसार रूपी समुद्र में बहुत काल तक घूमता रहता है, परिवर्तन करता रहता है। भाष्य : अनादि अविद्या के वशीभूत हो जीव रागद्वेष - परिणामों को करके सिद्ध - राशि के अनंतवें भाग और अभव्य राशि के अनंत गुणे परमाणु-रूप समय प्रबद्ध को बाँधता है। योग के वश से कमती बढ़ती परमाणुओं के समूह - रूप समय प्रबद्ध को बाँधता है तथा संसार सागर में दीर्घ काल तक भटकता है। आत्मज्ञान से शून्य होकर, संवेग - भाव प्राप्त न करके, पर-पदार्थो को ही अपना समझता रहा और नाना गतियों को धारण करता रहा, आत्म तत्त्व पर लक्ष्य ही नहीं गया । निज स्वभाव तथा संसार के स्वरूप को भी नहीं समझ पा रहा । साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ - जैसे किसी प्राणी के लिए महासागर में पड़े रत्न को प्राप्त करना कठिन है, उसी प्रकार संसार - समुद्र में पड़े आत्म- रत्न को प्राप्त करना कठिन है । संसार क्या है ? कैसा है ? यह समझना सर्वप्रथम आवश्यक है। जब तक संसार की अवस्था का सत्यज्ञान नहीं होगा, तब तक संसार भ्रमण के कारणों से जीव नहीं बचेगा । निमित्तों से बचे बिना संसार भ्रमण समाप्त होने वाला नहीं है । Jain Education International - मुनि विशुद्ध सागर 'मूलाचार' में श्रीमद् वट्टकेराचार्य जी ने परिवर्तन के चार ही भेद किये है : दव्वे खेत्ते काले भावे य चदुव्विहो य संसारो । दुर्गादि गमणिबद्धो बहुप्ययारेहिं णादव्वो || 706 संसरण करना, परिवर्तन करना, संसार है। उसके चार भेद हैं- द्रव्य परिवर्तन, काल परिवर्तन, क्षेत्र परिवर्तन और भव परिवर्तन । भाव परिवर्तन को भी इन्हीं में समझना चाहिए, क्योंकि अन्यत्र ग्रंथों में पाँच प्रकार से संसार का उपदेश किया गया है । 513 द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव - रूप चतुर्बिध संसार है। यह चतुर्गति के गमन से संयुक्त है । अनेक प्रकार से जानना चाहिए । आचार्य भगवन् कुंद कुंद स्वामी ने पाँच प्रकार से ही संसार का कथन किया, जैसे कि :'पंचविहे संसारे जाइ जरा मरण - रोग भय पउरे । जिणमग्गमपेच्छंतो जीवो परिभमदि चिरकालं ॥ वारसाणुवेक्खा - | 24 For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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