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________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ जिन - मार्ग पर श्रद्धान न करने के कारण यह जीव जन्म, बुढापा, मरण, रोग और भय से भरे हुए पंचपरावर्तन (द्रव्य, क्षेत्र, काल,भाव, भव) रूप संसार में चिरकाल तक परिभ्रमण करता है। अहो ! कषाय भाव की महिमा को देखो कि यह जीव आगम को समझकर भी अपने स्वभाव में बदलाव नहीं कर पा रहा है। संसार, शरीर, भोगों से विरक्ति के भाव ही नहीं बन रहे, क्या कारण है ? लगता है अशुभ आयु का बंध कर चुका है। यह सिद्धांत/ नियम है कि अशुभ- आयु-बंधक जीव सम्यक्त्व तो प्राप्त कर सकता है, परन्तु संयम प्राप्त नहीं कर सकता। मात्र देव-आयु का बंधक जीव ही संयम धारण कर सकता है अथवा अबंधक जीव। सिद्धांत चक्रवर्ती आचार्य भगवन् नेमिचंद स्वामी ने गोम्मटसार (जीवकाण्ड) में उल्लेख किया है 'चत्तारि वि खेत्ताई आउगबंधेण होदि सम्मत्तं । अणुवदमहव्वदाई ण लहइ देवाउगं मोत्तुं ॥653 अर्थात् चारों गति संबंधी आयुकर्म का बंध हो जाने पर भी सम्यक्त्व हो सकता है, किन्तु देवायु को छोड़कर शेष आयु का बंध होने पर अणुव्रत और महाव्रत नहीं होते। संसार का कथन करते हुए कार्तिकेय स्वामी ने कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा है - 'एक्कं चयदि शरीरं अण्णं गिण्हेदि णवणवं जीवो । पुणु पुणु अण्णं अण्णं गिण्हदि मुंचेदि बहु - वारं ॥32 ‘एवं जं संसरणं णाणा देहेसु होदि जीवस्य । सो संसारो भण्णदि मिच्छकसाएहिं जुत्तस्स' ॥33॥ अर्थात् जीव एक शरीर को छोड़ता है और दूसरे शरीर को ग्रहण करता है। पश्चात उसे भी छोड़कर अन्य नये शरीर को ग्रहण करता है । इस प्रकार अनेक बार शरीर को ग्रहण करता है, अनेक बार उसे छोड़ता है मिथ्यात्व कषाय से युक्त जीव का इस प्रकार अनेक शरीरों में जो संसरण होता है उसे संसार कहते हैं। चतुर्गति - संसार में एक क्षण को भी सुख नहीं है, परन्तु मोही अज्ञानी जीव सुखाभासों को ही सुख मान रहा है तथा पुन:-पुन. संसारार्णव में गोते लगा रहा है। शंका : क्या कारण है कि जिससे जीव को संसार के गर्त में गोते लगाने पड़ रहे हैं ? समाधान : मिथ्यात्व कर्म के उदय से अज्ञ प्राणी वीतराग देव, सद्शास्त्र, निर्ग्रन्थ गुरु, अहिंसादि धर्म से अपरिचित रहा तथा टंकोत्कीर्ण परम-पारिणामिक ज्ञायक - स्वभावी आत्मदेव से पूर्ण दूर रहा, अपने सत्य स्वभाव को नहीं जाना और न ही जानने का सम्यक् पुरुषार्थ किया, परन्तु इसके विपरीत कुधर्म कुतीर्थ की उपासना कर असंख्यातलोक- प्रमाण पापकर्म का संचय किया है। वक्रग्रीवाचार्य जी ने भी कहा है - 'मिच्छोदयेण जीवो जिंदंतो जेण्ह भासियं धम्म । कुधम्म कुलिंग कुतित्थं मण्णंतो भमदि संसारे ॥' वारसाणुपेक्खा 32 ॥ -514 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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