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________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ यह उसकी भाषा है, जो कि संघर्ष और असद्भाव का मार्ग है। अनेकांत में विनम्रता/सद्भाव है। जिसकी भाषा भी है। 'ही' का परिणाम 36 के रूप में निकलता है जिसमें तीन छह की तरफ और छह तीन की तरफ नहीं देखता, किन्तु 'भी' का परिणाम 63 के रूप में आता है जिसमें छह तीन और तीन छह के गले से लगता है। यही 63 का संबंध विश्व मैत्री, विश्व बन्धुता, सौहार्द, सहिष्णुता, सहअस्तित्व और अनाग्रह रूप अनेकांत का सिद्धांत है। यही अनेकांत की दृष्टि दुनिया के भीतर बाहर के तमाम संघर्षो को टाल सकती है। युग के आदि में आदिनाथ के पुत्र भरत और बाहुबली के बीच वैचारिक टकराहट हुई, फिर युद्ध की तैयारियाँ होने लगी । मंत्रियों की आपसी सूझबूझ से उसे टाल दिया गया। और निर्धारित दृष्टि , जल और मल्लयुद्ध के रूप में दोनों भ्राता अहिंसक संग्राम में सामने आये यह दो व्यक्तियों की लड़ाई थी। फिर राम रावण का काल आया जिसमें दो व्यक्तियों के कारण दो सेनाओं में युद्ध हुआ जिसमें हथियारों का प्रयोग हुआ। हम और आगे बढ़े महाभारत के काल में आये जिसमें एक ही कुटुम्ब के दो पक्षों में युद्ध हुआ और अब दो देशों में होता है पहले भाई का भाई से, फिर व्यक्ति का व्यक्ति से, फिर एक पक्ष का दूसरे पक्ष से और अब एक देश का दूसरे देश से युद्ध चल रहा है। और युद्ध का परिणाम सदैव विध्वंस ही निकलता है। 'हमें संघर्ष नहीं शांति चाहिए। और यदि सचमुच ही हमने यही ध्येय बनाया है तो अनेकांत का सिद्धांत 'भी' की भाषा अनाग्रही व्यवहार को जीवन में अपनाना होगा। अपरिग्रह - भगवान महावीर का तीसरा सिद्धांत अपरिग्रह का है । परिग्रह अर्थात् संग्रह- यह संग्रह मोह का परिणाम है । जो हमारे जीवन को सब तरफ से घेर लेता है, जकड़ लेता है, परवश/पराधीन बना देता है। वह है परिग्रह । धन पैसा को आदि लेकर प्राणी के काम में आने वाली तमाम सामग्री परिग्रह की कोटि में आती है। ये वस्तुएँ हमारे जीवन को आकुल - व्याकुल और भारी बनाती है। एक तरह से परिग्रह वजन ही है और वजन हमेशा नीचे की ओर जाता है। तराजू का वह पलड़ा जिस पर वजन ज्यादा हो वह स्वभाव से ही नीचे की ओर जाता है ठीक इसी तरह से यह परिग्रह मानव जीवन को दुखी करता है संसार में डुबोता है। भगवान महावीर ने कहा या तो परिग्रह का पूर्णत: त्याग कर तपश्चरण के मार्ग को अपनाओ अथवा पूर्णत: त्याग नहीं कर सकते तो कम से कम आवश्यक सामग्री का ही संग्रह करों। अनावश्यक अनुपयोगी सामग्री का तो त्याग कर ही देना चाहिए। आवश्यक में भी सीमा दर सीमा कम करते जाये यही 'अपरिग्रह' का आचरण है जो हमें निरापद, निराकुल और उन्नत बनाता है। अकर्त्तावाद - भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित एक सिद्धांत अकर्त्तावाद का है। अकर्त्तावाद का अर्थ है किसी ईश्वरीय शक्ति / सत्ता से सृष्टि का संचालन नहीं मानना ईश्वर की प्रभुता/सत्ता तो मानना पर कर्त्तावाद के रूप में नहीं । "प्राणी- प्राणी के प्राणों में करूणा का संचार हो । सब तरफ अभय और आनंद का वातावरण बने हिंसा आतंक और अनैतिकता खत्म हो 'जियो और जीने दो' का अमृत संदेश सभी आत्माओं को प्राप्त हो। सौहार्द, शांति और सद्भावना हम सबके अंदर विकसित हो, बस यही कामना है।" -509 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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