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________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ लों ऊपर गई किन्तु गाँव-गाँव नगर - नगर धरती का कण-कण दीपों से जगमगा उठा । भगवान महावीर स्वामी तो मोक्ष के वासी हुए पर उनके द्वारा प्रतिपादित अहिंसा, अनेकांत अपरिग्रह और अकर्त्तावाद के सिद्धांतों का प्रकाश पल- पल पर आज भी प्रासंगिक बना हुआ है। अहिंसा - प्राणियों को नहीं मारना, उन्हें भी नहीं सताना । जैसे हम सुख चाहते हैं, कष्ट हमें प्रीतिकर नहीं लगता, हम मरना नहीं चाहते वैसे ही सभी प्राणी सुख चाहते हैं, कष्ट से बचते हैं और जीना चाहते है । हम उन्हें मारने / सताने का मन में भाव न लायें, वैसे वचन न कहें और वैसा व्यवहार / कार्य भी न करें । मनसा, वाचा, कर्मणा प्रतिपालन करने का महावीर का यही अहिंसा का सिद्धांत है। अहिंसा, अभय और अमन चैन का वातावरण बनाती है । इस सिद्धांत का सार संदेश यही है कि प्राणी- प्राणी के प्राणों से हमारी संवेदना जुड़े और जीवन उन सबके प्रति सहायी / सहयोगी बने । आज जब हम वर्तमान परिवेश या परिस्थिति पर विचार करते हैं तो लगता है कि जीवन में निरंतर अहिंसा का अवमूल्यन होता जा रहा है। व्यक्ति, समाज और राष्ट्र बात अहिंसा की करते है। किन्तु तैयारियां युद्ध की करते हैं। आज सारा विश्व एक बारूद के ढेर पर खड़ा है। अपने वैज्ञानिक ज्ञान के द्वारा हमने इतनी अधिक अणु - परमाणु की ऊर्जा और शस्त्र विकसित कर लिए हैं कि तनिक सी असावधानी, वैमनस्य या दुर्बुद्धि से कभी भी विनाशकारी भयावह स्थिति बन सकती है। ऐसे नाजुक संवेदनशील दौर को हमें थामने की जरूरत है। हथियार की विजय पर विश्वास नहीं हृदय की विजय पर विश्वास आना चाहिए। तोप, तलवार से झुका हुआ इंसान एक दिन ताकत अर्जित कर पुन: खड़ा हो जाता है किन्तु प्रेम, करूणा और अहिंसा से वश में किया गया इंसान सदासदा के लिए हृदय से जुड़ जाता है। मेरी अवधारणा तो यही है कि अहिंसा का व्रत जितना प्रासंगिक महावीर के समय में था उतना ही और उससे कहीं अधिक प्रासंगिक आज भी है। कलिंग युद्ध में हुए नरसंहार को देखकर सम्राट अशोक का दिल दहल गया और फिर उसने जीवन में कभी भी तलवार नहीं उठाई । तलवार Salad a बिना ही उसने अहिंसक शासन का विस्तार किया । रक्तपात से नहीं रक्तसम्मान से उसने अपने शासन को समृद्ध किया । इसलिए व्यक्ति, समाज राष्ट्र और विश्व की शांति / समृद्धि के लिए भगवान महावीर द्वारा दिया गया “जियो और जीने दो' का नारा अत्यंत महत्वपूर्ण और मूल्यवान है । अनेकांत :- भगवान महावीर का दूसरा सिद्धांत अनेकांत का है । अनेकांत का अर्थ है - सहअस्तित्व, सहिष्णुता, अनाग्रह की स्थिति । इसे ऐसा समझ सकते हैं कि वस्तु और व्यक्ति विविध धर्मी है। जिसका सोच, चिंतन, व्यवहार और बर्ताव अन्यान्य दृष्टियों से भिन्न भिन्न है | अब वह यदि एकांगी / एकांती विचार / व्यवहार के पक्ष पर अड़कर रह जाता है तो संघर्ष / टकराव की स्थिति बनती है । अनेकांत का सिद्धांत ऐसी ही विषम परिस्थितियों में समाधान देने वाला है । यह वह सिद्धांत है जो वस्तु और व्यक्ति के कथन / पहलू को विभिन्न दृष्टियों से समझता है और उसकी सार्वभौमिक सर्वांगीण सत्ता के अस्तित्व को स्वीकार करता है। इस सिद्धांत के संबंध में साफ-साफ बात यह है कि एकांत की भाषा "ही" की भाषा है, रावण का व्यवहार है जबकि अनेकांत की भाषा 'भी' भाषा है, राम का व्यवहार है। राम ने रावण के अस्तित्व hat कभी नहीं नकारा किन्तु रावण राम के अस्तित्व को स्वीकारने कभी तैयार ही नहीं । यही विचार और व्यवहार संघर्ष का जनक है जिसका परिणाम विध्वंस / विनाश है। 'ही' अंहकार का प्रतीक है। 'मैं ही हूँ 508 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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