SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 606
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ अर्थात् - सम्यग्ज्ञानी होने पर अटल सम्यग्चारित्र को धारण करना चाहिए उस चारित्र के देश चारित्र और सकल चारित्र ऐसे दो भेद है। देश चारित्र पंचम गुणस्थान में और सकल चारित्र छठे गुणस्थान से होता है। इससे समझा जा सकता है कि चौथे गुणस्थान में सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान प्रकट होने पर चारित्र अपने आप प्रकट नहीं होता बल्कि उसे दृढ संकल्प पूर्वक सम्यग्दृष्टि होने पर ग्रहण किया जाता है। इस प्रकार तीसरी ढाल में सम्यग्दर्शन का और चौथी ढाल में सम्यग्ज्ञान और देशचारित्र का कथन किया है परन्तु पंडित जी ने यहां तक कहीं भी यह नहीं लिखा कि श्रावक को आत्मानुभूति शुद्धोपयोग या स्वरूपाचरण चारित्र होता है। पांचवी ढाल में मुनि बनने के पूर्व वैराग्य उत्पन्न करने में माता के समान सहायक बारह भावनाओं का कथन पंडित जी ने किया है। अब यहां पुन: विचारणीय बात यह है कि जिसे वैराग्य ही नहीं हे और विषय कषायों से विरक्ति ही नहीं उसे शुद्धोपयोगी कैसे कह सकते हैं। वैरागी ही मुनि बनता है। इसलिये पांचवी ढाल में वैराग्य भावना के बाद छठी ढाल में मुनियो के सकल संयम का कथन किया । सकल संयमी 28 मूलगुणधारी साधु होते हैं। उन्हें ही शुद्धोपयोग अर्थात् स्वरूपाचरण चारित्र होता है। ऐसा स्पष्ट करने के लिये पंडित जी मुनि के 28 मूलगुण एवं सम्यग्तप का कथन करने के बाद लिखते हैं कि - यों है सकल संयम चरित्त सुनिये स्वरूपाचरण अब । जिस होत प्रकटै आपनी निधि मिटै पर की प्रवृत्ति सब ।। अर्थात् - सकल संयमी मुनि को स्वरूपाचरण चारित्र होता है उसको अब सुनो। जिस स्वरूपाचरण चारित्र के प्रगट होने पर अपनी आत्मा की निधि प्रगट होती है तथा परवस्तुओं से सभी प्रकार की प्रवृत्ति मिट जाती है यहां इस कथन के बाद सुनिये स्वरूपाचरण अब यह पद लिखकर कहा कि स्वरूपाचरण चारित्र देश व्रती गृहस्थों या अव्रती गृहस्थों को नहीं होता । यदि अव्रती श्रावक या देशव्रती श्रावक को स्वरूपाचरण चारित्र होता तो वहीं देशव्रत के कथन के समय चौथी ढाल में कथन करना चाहिये था। जबकि नहीं कहा इस कथन से स्पष्ट है कि गृहस्थ श्रावक को स्वरूपाचरण चारित्र नहीं होता। पंडित दौलत राम जी के द्वारा इतना स्पष्ट कथन होने के बाद भी जिनकी अपनी हट ग्राहिता है और वे अन्य प्रकार से अपना तर्क वितर्क विद्वानों के द्वारा रचित ग्रन्थों को आगम मान कर शुद्धोपयोग अर्थात स्वरूपाचरण असंयम गुणस्थान में स्वीकार करते हैं। उन्हें अपनी भ्रांति दूर करने के लिये कुछ आचार्यो के आगम प्रमाण और भी यहां दिये जा रहे हैं। यह निश्चित है कि सम्यक दृष्टि को ही स्वरूपाचरण चारित्र होता है परन्तु असंयमी या देश संयमी सम्यक दृष्टि को नहीं, बल्कि सकल संयमी मुनि को ही होता है। अब यहां कोई तर्कशील व्यक्ति यह तर्क करे कि पूर्ण स्वरूपाचरण चारित्र, मुनि बनने पर होता है परन्तु आंशिक रूप में सम्यक् दृष्टि होने पर स्वरूपाचरण चारित्र प्रगट हो सकता है। ऐसा उनका मानना अपने घर का हो सकता है, आगम का नहीं। क्योंकि आगम में ऐसा कहीं पर भी नहीं कहा । यदि चौथे गुणस्थान में स्वरूपाचरण चारित्र मानते है तो उसके पूर्व होने वाले सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, एवं सूक्ष्म साम्पराय इन चारों चारित्रों के अंश भी चौथे गुणस्थान -503 Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy