SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 605
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि अविरत सम्यग्दृष्टि निर्दोष सम्यगदर्शन से सुशोभित होने पर भी उसके चारित्र मोहनीय ( अप्रत्याख्यानावरण) कर्म के उदय से लेश मात्र (थोड़ा सा) भी संयम नहीं होता है फिर सोचने की बात है कि शुद्धोपयोग जो वीतराग चारित्र का अविनाभावी है वह कैसे हो सकता है। "उत्तर पुराण" के सर्ग 74 श्लोक 543 में “आचार्य गुणभद्र स्वामी" लिखते हैं कि सम्यग्चारित्र की प्राप्ति सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक ही होती है परन्तु चतुर्थ गुणस्थान में सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान तो होता है. सम्यग्चारित्र नहीं होता । यदि चतुर्थ गुणस्थान में किचित भी संयम मान लिया जायेगा तो उसकी संज्ञा असंयत सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकती और न ही उसके औदयिक भाव हो सकता है, किन्तु क्षायोपशमिकभाव होगा। जब कि धवल पुस्तक 5 पृष्ठ संख्या 201 में कहा है कि असंयत सम्यग्दृष्टि का असंयतत्व औदयिक भाव है ( औदइएण भावेण पुणो असंजदो ।। 61) इस प्रकार किसी भी आर्ष ग्रन्थ में चतुर्थ गुणस्थान में चारित्र की अपेक्षा औदयिक भाव ही कहा है। तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय 2 में आचार्य उमास्वामी महाराज जीव के भावों का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि असंयतभाव औदयिक के 18 भावों में एक भाव है। तीसरी ढाल में सम्यग्दर्शन की महिमा का गुणगान करने के उपरांत स्वयं पंडित जी चौथी ढाल के तीसरे पद में सम्यग्दर्शन के साथ सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति मानते हैं और चारित्र की नहीं। ऐसा स्पष्ट उल्लेख करके लिखते हैं कि - सम्यक साधे ज्ञान होय पै भिन्न अराधै । लक्षण श्रद्धा जान दुहु में भेद अबाधै ॥ सम्यककारण जान ज्ञान कारज है सोई। युगपत होते हू प्रकाश दीपक तें होई॥ अर्थात् सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन के साथ होता है फिर भी अलग-अलग समझना चाहिए क्योंकि उनके लक्षण क्रमशः श्रद्धा करना और जानना है । सम्यग्दर्शन कारण है और सम्यग्ज्ञान कार्य है यही दोनों में अन्तर निर्बाध है जैसे दीपक की ज्योति और प्रकाश एक साथ होते है वैसे ही श्रद्धान और ज्ञान एक साथ होता है। अब यहां विचारणीय है कि यदि चारित्र भी साथ होता तो सम्यग् साधे ज्ञान चरण होय ऐसा कथन यहां एक साथ करते जब कि नहीं किया। बल्कि यह और स्पष्ट लिख दिया कि चौथे गुणस्थान में सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के साथ चारित्र लेशमात्र भी नहीं होता है तो फिर शुद्धोपयोग कैसे हो सकता है। पं. दौलतराम जी ने सोचा होगा कि इस कलिकाल में कई प्रकार के और भ्रम हो सकते हैं अत: किसी को भ्रम न रहे इसलिये उन्होंने चौथी ढाल के दसवें पद में पुन: स्पष्ट करते हुए लिखा कि - सम्यग्ज्ञानी होय बहुरि दृढ चारित्र लीजै । एक देश अरू सकल देश तसु भेद कहीजै ॥ 502 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy