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________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ में मानने पड़ेंगे जबकि पांचों चारित्र एक साथ नहीं होते और ये पाचों चारित्र छठे गुणस्थान के पूर्व भी प्रगट नहीं होते। फिर चतुर्थ गुणस्थान में कैसे प्रकट हो सकता है। यदि कोई तर्क करे कि चौथे गुणस्थान में मात्र उस समय क्षण मात्र के लिये स्वरूपाचरण होता है जिस समय आत्माभिमुख होते हैं और अन्य समय स्वरूपाचरण चारित्र नहीं होता है तो इसका समाधान यह है कि आत्म स्वरूप में क्षणिक लीनता अथवा अलीनता किस कर्म के उदय या अनुदय से होती है अर्थात् वह कौन सा कर्म है जिसके कारण प्रत्येक समय स्वरूपाचरण चारित्र नहीं होता यदि अनन्तानुबन्धी कषाय को उसमें बाधक मानते हैं तो तीसरे चौथै गुणस्थान में उसका अनुदय सदा ही रहता है । इसलिये हमेशा स्वरूपाचरण चारित्र मानना पड़ेगा और यदि चौथे गुण स्थान में स्वरूपाचरण चारित्र मानते हैं तो अनन्तानुबन्धी का उदयाभाव वहां भी है अत: चतुर्थ गुणस्थान में भी स्वरूपाचरण चारित्र मानना पड़ेगा किन्तु वहां मानने में जिनवाणी से प्रत्यक्ष विरोध आता है। यदि मिथ्यात्व और सम्यक् मिथ्यात्व के अभाव में स्वरूपाचरण चारित्र माना जाये तो दर्शन मोहनीय कर्म को सम्यकत्व और चारित्र इन दोनों स्वभाव रूप होने का प्रसंग प्राप्त होता है जबकि जिनवाणी में ऐसा कथन नहीं पाया जाता है। फिर भी कोई इसे स्वीकार करता है तो दूसरे गुणस्थान में मिथ्यात्व और सम्यक् मिथ्यात्व का अनुदय पाया जाता है। अत: दूसरे गुणस्थान में भी स्वरूपाचरण चारित्र मानना पड़ेगा। जो जिनवाणी के विरूद्ध है। यदि तर्क किया जाये कि चौथे गुणस्थान में 41 प्रकृतियों का संवर होने से आंशिक रूप में स्वरूपाचरण है तो फिर इन 41 प्रकृतियों का संवर तीसरे गुणस्थान में भी है और मिथ्यात्व रूपी प्रथम गुणस्थान में भी प्रयोग लब्धि में ढले हुए जीव के 34 और बन्धापशरण द्वारा 46 प्रकृतियों का संवर हो जाता है ऐसी स्थिति में मिथ्यात्व गुणस्थान में भी स्वरूपाचरण चारित्र मानना पड़ेगा। जो जिनवाणी के प्रत्यक्ष विरूद्ध है। अब यदि कोई ये कहे तो स्वरूपाचरण चारित्र क्षायोपशमिक भाव है क्योंकि अनन्तानुबंधी सर्वघाति प्रकृति के उदयाभाव क्षय से और सद् अवस्थारूप उपशम से उत्पन्न हुआ है ? उनका ऐसा कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि ये स्थिति तो तीसरे गुणस्थान में भी पायी जाती है अत: तीसरे गुणस्थान में भी क्षायोपशमिक चारित्र का प्रसंग आता है। जबकि जिनवाणी के सूत्रों में चारित्र की अपेक्षा क्षायोपशमिक नहीं बल्कि औदयिक भाव ही कहा है। औदयिक भाव बन्ध का कारण है। बन्ध संसार का कारण है अत: असंयत सम्यक दृष्टि निराश्रव नहीं हो सकता और उसके स्वरूपाचरण चारित्र नहीं होता बल्कि सम्यक्त्वाचरण चारित्र मान सकते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द देव ने चारित्र पाहुड की पांचवी गाथा में सम्यक्त्वाचरण चारित्र एवं संयमाचरण चारित्र ऐसे दो प्रकार के चारित्रों का स्पष्ट उल्लेख किया है। उसी की टीका लिखते हुए आचार्य जयसेन देव लिखते हैं कि वीतराग सर्वज्ञ देव संबंधी ज्ञान और दर्शन का शुद्ध होना सम्यक्त्वाचरण है। तीन मूढता,आठ मद, छ: अनायतन, आठ शंकादि दोष इन पच्चीस दोषों से रहित जो सच्चा श्रद्धान है वही सम्यक्त्वाचरण चारित्र है। उपासकाध्यन के श्लोक 241 में सम्यक्दर्शन के 25 दोषों का कथन करने के उपरान्त श्लोक 242 में उन समस्त दोषों से रहित सम्यक्त्व के निश्चयोचित चारित्र शब्द का उपयोग किया, जिसका अर्थ निश्चय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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