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________________ कृतित्व / हिन्दी जीव अजीव आश्रव बंध संवर निर्जरा मोक्ष इन सात तत्वों में बंध और मोक्ष का कथन किया गया है। ये परस्पर विरोधी दो दशायें हैं जिनमें बंधदशा दो द्रव्यों के संयोग से होती हुई क्षणिक (अनित्य) होती है। और मोक्षदशा संयोग का नाश होने पर स्वतंत्र द्रव्य की नित्य होती है । जहाँ संयोग (बंध) होता है । वहाँ वियोग (मुक्ति) अवश्य होती है। यदि चोर कारागार या जंजीर के बंधन में पड़ा है तो समयपूर्ण होने पर उसकी मुक्ति अवश्य होती है। इसी प्रकार आत्मा और कर्मपुद्गल का दूध पानी की तरह बंधन (मेल) अवश्य है परन्तु समय (स्थिति) पूर्ण होने पर आत्मा की मुक्ति भी अवश्य हो जाती है। वह स्वतंत्र हो जाता है अतः मुक्ति के विषय में जैनदर्शन की मान्यता तथा अन्य दर्शनों की मान्यता का ज्ञानकर लेना अत्यावश्यक है । जैनदर्शन - "बंधहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः” हुए कर्मो को रोक देने से तथा बद्ध कर्म परमाणुओं को क्रमशः दूर करते रहने से आत्मा के समस्त कर्मों का सम्पूर्ण रूप से क्षय (नाश) हो जाना और आत्मा का पूर्णशुद्ध (स्वतंत्र) दशा को प्राप्त हो जाना मोक्ष है। न्यायदर्शन - विभिन्न धर्मो में मुक्ति की मान्यता न्यायदर्शन के जन्मदाता गौतम ऋषि है। उनका मत है कि संसार दुःखमय है। दुःख के कारण राग, द्वेष, मोह हैं । तत्त्वज्ञान से जब राग द्वेष आदि दोष नष्ट हो जाते हैं तब आत्मा का मोक्ष होता है। "दुःख जन्म प्रवृत्ति दोषमिथ्याज्ञानानां उत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्ग:” (न्यायसूत्र 1-1-21 ) वैशेषिकदर्शन - साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ इस दर्शन के प्रवर्तक महर्षि कणाद है उनका मत है कि संसार दुःखमय है मोक्ष की प्राप्ति तत्त्वज्ञान से होती है बुद्धि सुख-दुख आदि नव विशेष गुणों का विनाश हो जाना आत्मा का मोक्ष है । "बुद्धयादिवैशेषिक गुणोच्छेदः पुरुषस्य मोक्षः " । - सांख्यदर्शन - इस दर्शन के जन्मदाता महर्षि कपिल हैं । 'ज्ञानान्मुक्तिः' अर्थात् ज्ञान से ही मुक्ति होती है। प्रकृति और पुरुष (आत्मा) का संयोग ही संसार है । और प्रकृति का पुरुष से अलग हो जाना ही मोक्ष है। योगदर्शन Jain Education International 1 इस दर्शन के प्रवर्तक महर्षि पातंजलि है । समाधि (परमध्यान) से अपने ज्ञानस्वरूप में लीन हो जाना आत्मा का मोक्ष है । " तस्मिन्निवृत्तेः पुरुषः स्वरूपप्रतिष्ठः अतः शुद्धो मुक्तः इत्युच्ये" (योगसूत्र - 1-5 ) 377 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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