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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ पूर्वमीमांसादर्शन इस दर्शन के प्रणेता महर्षि जैमिनी हैं। दान पूजा यज्ञ आदि कर्तव्यों के द्वारा स्वर्ग को प्राप्त करना आत्मा का मोक्ष है । इस दर्शन में स्वर्ग को ही मोक्ष माना गया है। उत्तरमीमांसा वेदांत दर्शन - वेदांतदर्शन के प्रवर्तक महर्षि बादरायण है । इस दर्शन का सिद्धांत है कि - "जीवो ब्रह्मैव नापर:,नित्यं शुद्ध बुद्ध मुक्तसत्यस्वभावं प्रत्यक् चैतन्यमेकं आत्मतत्त्वम्" अर्थ - जीव ब्रह्मा ही है, दूसरा कोई स्वतंत्र द्रव्य नहीं। नित्य, शुद्ध बुद्ध मुक्त सत्यस्वभावी वीतराग चैतन्यरूप ही आत्मतत्त्व है। ब्रह्मरूप जीव ब्रह्म की माया से ही संसारी जीव बन जाता है और शरीर आदि वस्तुओं में मोह करता है । मुक्त जीवों के सब गुण ईश्वर के समान हो जाते है । परन्तु सब जगत् का कर्तव्य गुण ईश्वर में ही रहता है, मुक्तात्माओं का संबंध जगत् की रचना से नहीं है। बौद्धदर्शन इस दर्शन के जन्मदाता महात्मा बुद्ध है। इस दर्शन का मुक्तिसिद्धांत है कि जैसे जलता हुआ दीपक दशों दिशाओं में नहीं जाता है किन्तु तेल के अभाव में अपने स्थान में शान्त (नष्ट) हो जाता है। उसी प्रकार आत्मा की दशों दिशाओं में न जाकर अपने स्थान में ही, मोह क्लेश आदि दोषों के नष्ट हो जाने से शांत (नष्ट) हो जाता है यही आत्मा का मोक्ष है। चार्वाक दर्शन इस दर्शन का सिद्धांत है कि आत्मा और शरीर दो स्वतंत्र द्रव्ये नहीं है किन्तु पृथ्वी आदि पंच भूतो से बना हुआ एक विचित्र पिण्ड है जो जन्म के पहले नहीं होता और मरण के बाद भी नहीं रहता है मरण होने पर आत्मा का उच्छेद (नाश) हो जाना ही मोक्ष है। खार्पटिकमत __ श्री अमृतचंद्र आचार्य के समय भारत में खारपटिकमत प्रचलित था । मोक्ष के विषय में उसकी मान्यता है कि जैसे घड़े में कैद की हुई चिड़िया घड़े के फूट जाने से मुक्त हो जाती है । वैसे ही शरीर के नष्ट हो जाने से, शरीर में रूका हुआ आत्मा भी मुक्त हो जाता है यही मोक्ष है। थियोसोफीमत - यह हिन्दु धर्म के अंतर्गत मान लिया गया है। इसका सिद्धांत है कि इस जगत् में एक अतिविशाल जड़ द्रव्य है जो बहुत उष्ण है। उसका करोड़ों मील का विस्तार है, वह मेघ के समान शक्तियों का समूह है। वह घूमते-घूमते सूर्य का मण्डल बन जाता है। उसी से हाइड्रोजन वायु, लोहा आदि पदार्थ बन जाते हैं। कुछ संयोग से जीवनशक्ति प्रगट हो जाती है। इसी से क्रमश: वनस्पति पशु पक्षी तथा मनुष्य बन जाते हैं । ज्ञान प्राप्त करके वह मानव अंत में मुक्त हो जाता है। 378 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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