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________________ कृतित्व / हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ तीर्थंकर परम्परा से प्रवाहित प्राचीन जैन दर्शन में वैज्ञानिक तत्त्व चौबीस तीर्थंकर शलाकापुरूषों से प्रवाहित जैन दर्शन में जिन तत्त्वों या सिद्धांतों की व्याख्या की गई है, वह व्याख्या विशिष्ट ज्ञान विज्ञान अर्थात् केवल ज्ञान के माध्यम से की गई है, वे सिद्धांत अतिप्राचीन हैं। उनका परीक्षण करने पर वे सिद्धांत (तत्त्व) आधुनिक भौतिक विज्ञान से प्राय: समंवय (संतुलन) रखते हैं । युक्ति, प्रमाण, अनुमान, प्रयोग और वैज्ञानिकों के आविष्कारों से उन तत्त्वों की सत्यता सिद्ध होती है । जैनदर्शन में 24 तीर्थंकरों का उद्भव विश्व कल्याण हेतु माना है, तथाहि आचाराणां विधातेन, कुदृष्टीनां च सम्पदा | धर्म ग्लानिपरिप्राप्त - मुच्छ्रयन्ते जिनेश्वराः || 206 ते तं प्राप्य पुनर्धर्मं, जीवाः वान्धव मुत्तमम् । प्रपद्यन्ते पुनर्मार्ग, सिद्ध स्थानाभिगामिनः ॥ (रविषेणाचार्य: पद्मपुराण: पर्व 5 पद्य 206-207) तात्पर्य - - जब लोक में पंचपापों और 7 व्यसनों से अत्याचार बढ़ जाते हैं, मिथ्यादृष्टियों का प्रभाव हो जाता है, इनके प्रभाव से धर्म का ह्रास होकर अधर्म फैल जाता है, तब विश्व कल्याण के लिए तीर्थंकरों का जन्म होता है । वे पतित प्राणी उत्तम मित्र के समान धर्म को धारण कर मुक्ति मार्ग के पथिक होकर परमात्मपद को प्राप्त करने का पुरूषार्थ करते हैं । विज्ञान का समर्थन - " जैन धर्म एक विज्ञान है जिसका प्रवर्तन एवं इस युग में इस पूर्ण विज्ञान का उद्भव श्री ऋषभनाथ तीर्थंकर से हुआ है। वैदिक ऋषियों ने भगवान ऋषभदेव को धर्म का प्रतीक माना है और उन्हें अपने प्रमुख देवता विष्णु के अवतारों में सम्मिलित किया है। वे ऋषभदेव के चिन्ह बैल (नादिया) को धर्म प्रतीक के रूप प्रयोग करते हैं । और भ. ऋषभदेव को धर्म का आद्यप्रवर्तक कहते हैं । " (जय भगवान एडवोकेट : तीर्थकर ऋषभविशेषांक पृ. 13) 1. " श्री ऋषभदेव अयोध्या के सम्राट नाभिराज एवं सम्राज्ञी मरूदेवी के पुत्र | कल्पसूत्रग्रन्थ के अनुसार उन्होंने अपने राज्यकाल में जनता की भलाई के लिए पुरूष की 72 कलायें बताई, जिनमें लिपिकला प्रथम, गणित कला द्वितीय विशेष महत्त्वशाली हैं, शकुनज्ञान अंतिम कला है । पश्चात् उन्होंने नारियों की 64 कलायें 100 उपकलायें और मनुष्यों को तीन प्रमुख व्यवसाय शिखाए' (डॉ. एच. डी. सांकलिया : ऋषभदेव शीर्षक अंग्रेजी लेख का अनुवाद) Jain Education International 201 For Private & Personal Use Only 33 www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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