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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ __ डॉ. हर्मनयाकोबी ने इसी उल्लेख को इस प्रकार स्पष्ट किया है - "कुम्हार, लुहार, चित्रकार, जुलाहे और नाई की कलाओं को पाँच प्रकार से विभाजित किया, इनमें से प्रत्येक के बीस विभागों का आविष्कार किया गया। इनका पढ़ाना आवश्यक हुआ । व्यवसाय कृषि एवं व्यापार देश में सर्वत्र फैलने लगे"। लेख का अन्तिम चरण - महाराज नाभिराज और ऋषभदेव के स्वर्णातीत पर,जैन तथा ब्राह्मणों की परम्पराओं के अनुसार दृष्टिपात करने से यह कोरा कपोल कल्पित नहीं है - कि उनका उस समय में अस्तित्व था । जब मनुष्य अपने सांस्कृतिक विकास की प्रारंभिक अवस्था में था तब उसका जीवन स्तर ऋषभदेव के द्वारा उन्नत किया गया था । संभवत: इसीलिए वे प्रथम तीर्थंकर और प्रथम उपदेष्टा या आदि ब्रह्मा कहे जाते हैं, उन्होंने मानव को सभ्य बनाया था । (अहिंसावाणी: ऋषभविशेषांक पृ. 14-15) अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त जापानी विद्वान प्रो. नाकामुरा ने बौद्ध त्रिपिटक साहित्य का मन्थन करके भ.ऋषभदेव विषयक साहित्य का अध्ययन कर अमूल्य लेख “वायस ऑफ अहिंसा '' में प्रकाशित कराया है । लेख का शीर्षक है "चीनी बौद्धसाहित्य में श्री ऋषभदेव" । उसी लेख का भावानुवाद कुछ उद्धरण के रूप में हिन्दी में प्रस्तुत है (टिप्पणी सम्राट ऋषभविशेषांक)। बौद्ध धार्मिक ग्रन्थों के चीनी भाषा में रूपान्तरित संस्करणों में यत्र - तत्र जैनों के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव विषयक उल्लेख मिलते हैं। भ. ऋषभदेव के व्यक्तित्व से जापानी भी अपरिचित नहीं हैं । जापानियों को उनका परिचय चीनी साहित्य द्वारा प्राप्त हुआ है, जापानी उन्हें "रोक् शब (Rok Shaba)" नाम से पुकारते हैं। चीनी में इस उद्धरण पर विवेचना करते हुए त्रिशास्त्र सम्प्रदाय के संस्थापक श्री चित्संग (549-633ई.) ने इसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार किया है - "ऋषभ एक तपस्वी ऋषि हैं उनका उपदेश है कि हमारे शरीर को सुख और दुःख अनुभव करने होते हैं, हमारा दुःख जो पूर्व संचित कर्मो का फल है, वह कदाचित् इस जीवन में सच्ची तपस्या द्वारा समाप्त हो जाता है तो सुख तुरंत प्रकट होता है, उनके धर्मग्रन्थ “निर्ग्रन्थ सूत्र" नाम से प्रसिद्ध हैं। उनमें हजारों कारिकायें हैं "। (तीर्थंकर ऋषभ विशेषांक : पृ. 16 17 ) एवं (प्रो. हाजिमे नाकामुरा टोकियो) "यह सत्य है कि भगवान् ऋषभदेव मानवता के पहले नियन्ता थे। वे, थे जिन्होंने भौतिक संसार में संस्कृति और सम्यता के बीजों को वोया था। वे, वे थे जिन्होंने समस्त कलाओं और विज्ञानों का विश्व को पाठ पढ़ाया था। संसार उनके प्रति चिर ऋणी है "। (के.बी.फिरोदिया: पूर्व स्पीकर: विधान सभा बम्बई) मोहनजोदड़ो, हड़प्पा (सिन्ध प्रान्त), लोहानीपुर (पटना), कंकाली टीला (मथुरा) से प्राप्त पुरातत्व ने इतिहासकारों को आश्चर्य में मग्न कर दिया है । मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक पद्मासन में स्थित योगी की मूर्ति और हड़प्पा से प्राप्त एक नग्न मूर्ति का धड़, ऋषभदेव की दिगम्बर मुद्रा के समान ज्ञात होता है, उसधड़ मूर्ति का साम्यलोहानीपुर (पटना) से प्राप्त मौर्यकालीन और सुंगकालीन मूर्तियों के धड़ से होता है। स्व. डा. (202 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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