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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ उखाड़कर रस चूसा तो जनता की भूख प्यास दोनों शान्त हो गई। जनता प्रसन्न होकर ऋभषदेव का जय जय कार करने लगी। उस समय ऋषभदेव ने इक्षु (गन्ने) की खेती करना सिखलाया। भूखी प्यासी जनता के प्रार्थना करने पर ऋषभदेव ने सर्वप्रथम इक्षु शब्द का प्रयोग किया था, इसलिए ऋषभदेव का वंश 'इक्ष्वाकु' इस नाम से प्रसिद्ध हो गया । शास्त्रों में कहा है - "इक्षु इति शब्दं अक तीति, अथवा इक्षुमाकरोतीति इक्ष्वाकुः इति" अर्थात् भूखी प्यासी जनता के माँग करने पर सर्वप्रथम इक्षु शब्द का प्रयोग किया था इस कारण ऋषभदेव का वंश 'इक्ष्वाकु' के नाम से प्रसिद्ध हो गया। ऋषभदेव का राज्याभिषेक: - कुछ समय पश्चात् इन्द्र देव और विशिष्ट मानवों ने मिलकर सिंहासन पर ऋषभदेव का राज्याभिषेक कर वस्त्राभूषण धारण कराये, तिलक करण किया , नाभिराजा ने अपने शिर का मुकुट उतार कर ऋषभदेव के सिर पर स्थापित किया, तलवार एवं श्रीफल करकमलों में समर्पित किया, इसी समय देश देश के मण्डलेश्वरों द्वारा उपहार के थालभेंट किये गये, आर्यावर्त का सम्राट घोषित किया गया, वाद्यों की मधुर ध्वनि, पुष्पवर्षा, मंदपवन, गंधोदक वृष्टि, नृत्यगायन और जय ध्वनि से आकाश व्याप्त हो गया। देवों द्वारा 'आनंद' नाटक का अभिनय किया गया। ऋषभदेव सम्राट ने अयोध्या में अनेक विशाल मंदिरों के साथ सुकोशल, अवन्ति, मालव, काशी, महाराष्ट्र, काश्मीर, कलिंग आदि अनेक देशों का एवं ग्रामों का निर्माण कराया । नगरों को स्थापित कराया। श्रावण कृष्णा प्रतिपदाको राष्ट्रों के निर्माण के साथ षट्कर्मो का उपदेश दिया जो इस प्रकार हैं - (1) असिकर्म-सैनिकवृति,शस्त्र-अस्त्रों का संचालन, सैनिकों के कर्तव्य आदि। (2) मसिकर्म: -भाषा एवं लिपि की कला, कानून शास्त्र, राजनीति, विद्यालय एवं महाविद्यालयों की स्थापना कर शिक्षा का उच्चस्तर करना, परीक्षाओं, की व्यवस्था आदि । (3) कृषिविज्ञान - वनस्पति, अन्न, फलफूल, शाक आदि का उत्पादन। (4) विद्या - पुरूषों की बहत्तर कलाओं का शिक्षण, तथा महिलाओं की चौंसठ कलाओं का शिक्षण, रचना और विकास । (5) वाणिज्य बाजार स्थापित करना, दुकानों की व्यवस्था, विविध माल का उत्पादन, न्यायपूर्वक व्यापार की व्यवस्था करना आदि। (6) शिल्पकर्म भवन निर्माण, मिट्टी के बर्तन बनाना, क्षौरकर्म, काष्ठकर्म, लौहकर्म, स्वर्ण चाँदी के आभूषणों का निर्माण, धातु के बर्तन, वस्त्रकला आदि । ऋषभदेव ने प्रजा के सुखपूर्वक जीवन निर्वाह के लिए उक्त षट्कर्मो के उपदेश और आदेश दिये, जिससे प्रजा सुख से जीवन व्यतीत करने लगी __ किसी मानव से अपराध होने पर यथायोग्य हा,मा,धिक ये तीन दण्ड घोषित किये गये । (1) हा अर्थात् बड़े दुःख की बात है कि आप जैसे चतुरपुरूष ने यह अपराध किया है, अब नहीं करना । (2) मा - बड़े आश्चर्य की बात है कि आप जैसे विवेकी ने यह अपराध किया है अब भविष्य में ऐसा अपराध न हो । (3) धिक - आप जैसे शिक्षित पुरूष यह अपराध करते हैं आप के जीवन को धिक्कार है अब भविष्य में कभी नहीं करना । इन दण्डों से पुरूष सावधान हो जाता था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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