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________________ कृतित्व/हिन्दी साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ सम्राट ऋषभदेव ने चार वंश स्थापित किये, जिससे समाज की सुयोग्य व्यवस्था स्थिर रहे - (1) हरिवंश, (2) अकम्पन वंश (नाथवंश), (3) काश्यप (उग्रवंश), (4) सोमप्रभ (कुरूवंश) । प्रत्येक वंश के अंतर्गत चार - चार हजार क्षत्रियराजा थे। आत्मकल्याण या जीवन शुद्धि के लिए अन्य षट्कर्म : (1) परमदेव, शास्त्र और गुरु का दर्शन एवं गुणकीर्तन । (2) सुयोग्य गुरु की उपासना, (3) ज्ञानवृद्धि के लिए ग्रन्थों का स्वाध्याय, लेखन, मनन, (4) पंच इंद्रियों का वशीकरण तथा प्राणियों की सुरक्षा करना। (5) तप बढ़ती हुई इच्छाओं को रोकना, हिंसा आदि पापों के विचारों को नहीं करना, सादा जीवन और उच्चविचार करना.धार्मिक तत्त्वों का मनन करना। दान, परोपकार या सेवा करना - (1) पात्रों को आहार देना, दीन दुखी अनाथों के लिए भोजन व्यवस्था, प्रपा (प्याऊ) की व्यवस्था, कूपों का निर्माण, जल (पेय) की व्यवस्था करना । (2) विद्यालय, महाविद्यालयों को स्थापित कर उनकी व्यवस्था करना। पुस्तकों का वितरण करना, अज्ञानियों को ज्ञान दान करना, लिखाई की व्यवस्था, परीक्षक एवं परीक्षा की व्यवस्था, संस्था का वार्षिक अधिवेशन, सभाओं और धार्मिक कवि सम्मेलनों के आयोजन, गोष्ठी का आयोजन, ग्रन्थ प्रकाशन आदि । (3) धर्मार्थ औषधालय एवं अस्पतालों का संचालन, पीड़ित रोगी के दवा परिचर्या और पथ्य की व्यवस्था, आयुर्वेद शास्त्र के अनुसार औषधियों का निर्माण, प्राकृतिक चिकित्सा की व्यवस्था, योग चिकित्सा की व्यवस्था, दैनिक चर्या को व्यवस्थित बनाना, पर्यावरण की शुद्धि एवं सुरक्षा, सुर्योदय के पूर्व जागरण, पठन और पर्यटन, शुद्ध शाकाहार विहार- आहार, स्वच्छता के साथ जीवन यापन आदि। (4) धर्मशाला, अतिथिगृह, उदासीन आश्रम, छात्रावास, उपासना गृह आदि का निर्माण एवं उनकी व्यवस्था करना, गृहहीन दीनजनों के लिए गृहव्यवस्था, सर्विस अथवा व्यापार का आश्रय देना, निर्बल तथा अल्पसंख्यकजनों की सुरक्षा, गाय, भैस आदि पशु पक्षियों की सुरक्षा, मांसाहार और मांस व्यापार का विरोध आदि इस प्रकार अहिंसा प्रधान शासन करते हुए ऋषभदेव के जीवन का बहुत समय व्यतीत हो गया। ऋषभदेव का वैराग्य और दीक्षा कल्याणक - सम्राट ऋषभदेव अयोध्या के राज दरबार में सिंहासन पर विराजमान थे। एक दिन इन्द्र ने राज दरबार में नृत्य करने के लिए नीलांजना अप्सरा को भेजा। सुन्दर नृत्य करते हुए वह विलुप्त हो गई। रंग में भंग न हो, इस कारण इन्द्र ने तत्काल दूसरी उसी आकृति की नीलांजना दरबार में भेज दी । उसका नृत्य भी होने लगा। इस चमत्कार को देखकर ऋषभदेव अपने अवधि ज्ञान से समझ गये कि जैसा नीलांजना का जीवन क्षणिक है वैसा ही विश्व समस्त प्राणियों का जीवन क्षणिक है कोई अजर अमर नहीं है। इस प्रकार विचार करते हुये ऋषभदेव की मतिश्रुत अवधि ज्ञान परिपूर्ण आत्मा में संसार शरीर और पंचेन्द्रियों के योग्य विषयों से उदासीनता समा गई। ऋषभदेव ने चक्रवर्ती भरत को भारत का राज्य तिलक करण एवं मुकुट बंधन के साथ प्रदान किया (148) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012072
Book TitleDayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
PublisherGanesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publication Year2008
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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