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________________ ४ / दर्शन और न्याय : ५३ निर्विकल्पक शब्दसे पुकारते हैं और ज्ञान या ज्ञानोपयोगका अर्थ जब आत्माको पदार्थका प्रतिभासित होना ही है तभी उसे सविकल्पक शब्दसे पुकारते हैं । इसका भी तात्पर्य यह है कि उक्त प्रकारके दर्शन या दर्शनोपयोगमें पदार्थका अवलम्बन होते हए भी स्वसंवेदकता और परसंवेदकता दोनों ही प्रकारके विकल्पोंका अभाव पाया जाता है अतः उसे निर्विकल्पक शब्दसे पुकारते हैं। चूंकि प्रमाणज्ञानरूप ज्ञान या ज्ञानोपयोगमें स्वपरसंवेदकता पायी जाती है और अप्रमाणज्ञानरूप ज्ञान या ज्ञानोपयोगमें परसंवेदकताका अभाव रहते हुए भी स्वसंवेदकता तो नियमसे पायी जाती है अतः उन्हें सविकल्पक शब्दसे पुकारते हैं । अर्थात् विद्यमान घड़ेको विषय करनेवाले प्रमाणज्ञानमें “मैं घड़ेको जानता हूँ" ऐसा विकल्प और "यह घड़ा है" ऐसा विकल्प ज्ञाताको होता है तथा अप्रमाणज्ञानमें भी सीपमें “यह सीप है या चाँदी है" या "यह चांदी है" अथवा "यह कुछ है" ऐसा विकल्प ज्ञाताको होता है। परन्तु उक्त प्रकारके दर्शनमें उक्त प्रकार या अन्य प्रकारका कोई विकल्प संभव नहीं है। (४) इसी प्रकार दर्शन या दर्शनोपयोगका अर्थ जब आत्मामें पदार्थका प्रतिबिम्बित होना ही है तभी उसे अव्यवसायात्मक शब्दसे पुकारा गया है और ज्ञान या ज्ञानोपयोगका अर्थं जब आत्माको पदार्थका प्रतिभासित हो जाना है तभी उसे व्यवसायात्मक शब्दसे पुकारा जाता है। इसका भी तात्पर्य यह है कि उक्त दर्शन या दर्शनोपयोगमें पदार्थका अवलम्बन होते हुए भी स्वसंवेदकता और परसंवेदकता दोनों ही प्रकारको व्यवसायात्मकताका अभाव पाया जाता है अतः उसे अध्यवसायात्मक शब्दसे पुकारते हैं। चूंकि प्रमाणज्ञानरूप ज्ञान अथवा ज्ञानोपयोगमें स्वपरसंवेदकता पायी जाती है और अप्रमाणज्ञानरूप ज्ञान या ज्ञानोपयोगमें परसंवेदकताका अभाव रहते हए भी स्वसंवेदकता तो नियमसे पायी जाती है अतः उन्हें व्यवसायात्मक शब्दसे पुकारा जाता है । यहाँ इतना विशेष समझना चाहिये कि आगममें अप्रमाणज्ञानको जो अव्यवसायी कहा गया है वह इसलिये कहा गया है कि विपर्ययज्ञानमें जिस पदार्थका दर्शन होता है उससे भिन्न पदार्थका ही साद श्यवशात बोध होता है, संशयज्ञानमें जिस पदार्थका दर्शन होता है उसका तथा उसके साथ ही उससे भिन्न पदार्थका भी सादृश्यवशात ढलमिल बोध होता है और अनध्यवसायज्ञानमें तो पदार्थका दर्शन होते हए भी अनिर्णीत बोध होना स्पष्ट है। दर्शनोपयोगकी उपयोगात्मकता आगममें दर्शन या दर्शनोपयोग और ज्ञान या ज्ञानोपयोग दोनोंको ही उपयोगात्मक माना गया है। इनमेंसे ज्ञान या ज्ञानोपयोगको पूर्वोक्त प्रकार विशेष अवलोकन या विशेष ग्रहण रूप होनेसे तथा साकार, सविकल्पक और व्यवसायात्मक होनेसे उपयोगात्मक मानना तो निर्विवाद है, परन्तु दर्शन या दर्शनोपयोगको सामान्य अवलोकन या सामान्यग्रहणरूप होनेसे तथा निराकार, निर्विकल्पक और अव्यवसायात्मक होनेसे उपयोगात्मक मानना अयुक्त जान पड़ता है । फिर भी उसे इसलिये उपयोगात्मक माना गया है कि एक इन्द्रियसे पदार्थका प्रतिबिम्ब आत्मामें पड़नेके अवसरपर अन्य इन्द्रियोंसे भी पदार्थका प्रतिबिम्ब आत्मामें पड़ता है और इसी प्रकार प्रत्येक इन्द्रियसे एक साथ नाना पदार्थोंका प्रतिविम्ब भी आत्मामें एक साथ पड़ता है। इस तरह आत्मा नाना इन्द्रियोंसे नानापदार्थोंका प्रतिविम्बि एक साथ पड़ने पर भी अथवा एक ही इन्द्रियसे नाना पदार्थों का प्रतिबिम्ब एक साथ पड़नेपर भी उस समय उसी इन्द्रियसे और उसी पदार्थ के आत्मामें पड़नेवाले प्रतिबिम्बको दर्शन या दर्शनोपयोग कहना चाहिये, जो अपने प्रभावको अधिकताके कारण उस समय होनेवाले पदार्थज्ञानमें कारण होता है, क्योंकि नाना इन्द्रियोंसे नाना पदार्थों के तथा एक ही इन्द्रियसे नाना पदार्थोके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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