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________________ ५२ : सरस्वती-वरदपुत्र पं०बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ साक्षात् कारण होता है तथा स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमानरूप मतिज्ञानमें तथा श्रुतज्ञानमें पदार्थदर्शन परंपरया कारण होता है । इसका आधार यह है कि दर्शन और अवग्रह, ईहा, अवाय अथवा धारणारूप मतिज्ञानोंके मध्य कोई व्यवधान नहीं है जबकि दर्शन और स्मृतिके मध्य धारणाज्ञानका, दर्शन और प्रत्यभिज्ञानके मध्य स्मृतिका, दर्शन और तर्कके मध्य प्रत्यभिज्ञानका, दर्शन और अनुमानके मध्य तर्कका और दर्शन और श्रुतज्ञानके मध्य अनुमानज्ञानका व्यवधान रहा करता है। यहां श्रुतसे शब्दजन्य श्रुत लिया गया है-ऐसा जानना चाहिये। जिन जीवोंको अवधिज्ञान होता है उनके उसकी उत्पत्तिमें भी दर्शन कारण होता है, जिसे अवधिदर्शन कहते हैं और केवलज्ञानकी उत्पत्तिमें जो दर्शन कारण होता है उसे केवलदर्शन कहा जाता है । यद्यपि मनःपर्ययज्ञान भी दर्शनपूर्वक ही होता है परन्तु उस दर्शनको कौनसा दर्शन कहा जाय ? इसका उल्लेख मुझे आगममें देखनेको नहीं मिला है। फिर भी मेरा अभिमत है कि मनःपर्ययज्ञान मनःस्थित आत्मप्रदेशोंमें मनःपर्ययज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमपूर्वक होता है और वह ईहाज्ञानके पश्चात् होता है अतः हो सकता है कि उस दर्शनको मानस दर्शनके रूपमें अचक्षदर्शनमें अन्तर्भूतकर दिया गया हो, विद्वान पाठकोंको इसपर विचार करना चाहिये। दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोगके विविध नाम और उनका आधार (१) यतः दर्शन या दर्शनोपयोगका अर्थ पूर्वोक्त प्रकारसे आत्मामें पदार्थोंका प्रतिविम्बित होना ही है अतएव उसे सामान्य अवलोकन या सामान्यग्रहण नामोंसे पुकारा जाता है और ज्ञान या ज्ञानोपयोगका अर्थ पूर्वोक्त प्रकारसे आत्माको पदार्थोंका प्रतिभासित होना ही है अतः उसे विशेष अवलोकन या विशेषग्रहण नामोंसे पुकारा जाता है । यहाँपर वस्तुके सामान्य अंशका प्रतिभास होना दर्शन और विशेष अंशका प्रतिभास होना शान है-ऐसा अर्थ सामान्य अवलोकन या सामान्य ग्रहणका और विशेष अवलोकन या विशेष ग्रहणका नहीं करना चाहिये। तात्पर्य यह है कि उक्त प्रकारके दर्शन या दर्शनोपयोगमें पदार्थका अवलम्बन होनेसे वह पढार्थावलोकन या पदार्थ ग्रहणरूप तो है फिर भी वह द्रष्टाको अपना संवेदन करानेमें असमर्थ है और जो अपना संवेदन नहीं करा सकता है वह परका संवेदन कैसे करा सकता है ? अतः दर्शन या दर्शनोपयोगको सामान्य अवलोकन या सामान्य ग्रहण नामोंसे पुकारा जाता है। चूंकि प्रमाणज्ञानरूप ज्ञान या ज्ञानोपयोगमें स्वपरसंवेदकता पायी जाती है और अप्रमाणज्ञानरूप ज्ञान या ज्ञानोपयोगमें परसंवेदकताका अभाव रहते हुए भी स्वसंवेदकता तो नियमसे पायी जाती है अतः उन्हें विशेष अवलोकन या विशेष ग्रहण नामोंसे पुकारा जाता है। (२) दर्शन या दर्शनोपयोगका अर्थ जब आत्मामें पदार्थका प्रतिविम्बित होना ही है तभी उसे आगममें निराकार शब्दसे पुकारा गया है और ज्ञान या ज्ञानोपयोगका अर्थ जब आत्माको पदार्थका प्रतिभासित होना ही है तभी उसे साकार शब्दसे पुकारा जाता है । इसका भी तात्पर्य यह है कि उक्त प्रकारके दर्शन या दर्शनोपयोगमें पदार्थका अवलम्बन होते हुए भी स्वसंवेदकता और परसंवेदकता दोनों ही प्रकारके आकारोंका अभाव पाया जाता है अतः उसे निराकार शब्दसे पुकारते है। चूंकि प्रमाणज्ञानरूप ज्ञान या ज्ञानोपयोगमे स्वपरसंवेदकता पायी जाती है और अप्रमाणज्ञानमें परसंवेदकताका अभाव रहते हुए भी स्वसंवेदकता तो नियमसे पायी जाती है अतः उन्हें साकार शब्दसे पुकारते हैं । (३) दर्शन या दर्शनोपयोगका अर्थ जब आत्मामें पदार्थका प्रतिबिम्बित होना ही है तभी उसे आगममें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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