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________________ ५४ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ प्रतिबिम्ब आत्मामें एक साथ पड़नेपर भी अल्पज्ञ जीवोंको उस अवसरपर एक ही इन्द्रियसे एक ही पदार्थका बोध हआ करता है। इस प्रकार आगममें पदार्थप्रतिबिम्बसामान्यको दर्शन या दर्शनोपयोग न मानकर पदार्थप्रतिबिम्बविशेषको ही दर्शन या दर्शनोपयोग स्वीकार किया गया है। दर्शनोपयोग ज्ञानोपयोगसे पथक है यद्यपि दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग दोनों ही उपयोगात्मक है फिर दर्शनोपयोगको ज्ञानोपयोगसे पृथक् ही जैनदर्शनमें स्थान दिया गया है। इसका एक कारण तो यह है कि जहां ज्ञानोपयोगको विशेप अवलोकन या विशेषग्रहणरूप तथा साकार, सविकल्पक और व्यवसायात्मक स्वीकार किया गया है वहां दर्शनोपयोगको सामान्य-अवलोकन या सामान्यग्रहणरूप तथा निराकार, निर्विकल्पक और अव्यवसायात्मक स्वीकार किया गया है। दूसरा कारण यह है कि पूर्वोक्त प्रकार दर्शनोपयोग ज्ञानोपयोगकी उत्पत्तिमें कारण होता है। तीसरा कारण यह है कि दर्शनोपयोग विद्यमान पदार्थका ही हुआ करता है जबकि ज्ञानोपयोग विद्यमान और सादृश्यवशात कदाचित् अविद्यमान पदार्थका भी हुआ करता है। चौथा कारण यह है कि दर्शन पदार्थप्रतिबिम्बरूप होता है जबकि ज्ञान पदार्थप्रनिभासरूप होता है। और पांचवा कारण यह है कि आगममें जीवकी भाववतीशक्तिके विकासके रूपमें दर्शन और ज्ञान दो पृथक् पृथक शक्तियां स्वीकार की गयी हैं तथा इनको ढकनेवाले दर्शनावरण और ज्ञानावरण दो पृथक पृथक् कर्म भी वहां स्गीकार किये गये हैं जिनके क्षयोपशम या क्षय से इनका पृथक् पृथक् विकास होता है। इन्हीं विकसित दर्शनशक्ति और ज्ञानशक्तिके पृथक् पृथक् सामान्य अवलोकन और विशेष अवलोकन करने रूप व्यापारोंको ही क्रमशः दर्शनोपयोग व ज्ञानोपयोग समझना चाहिये । दोनों उपयोगोंके क्रम और योगपद्यपर विचार यद्यपि आत्मामें पदार्थके प्रतिबिम्बित होनेका नाम दर्शनोपयोग है और वह तबतक विद्यमान रहता है जबतक जीवको पदार्थज्ञान होता रहता है, परन्तु दर्शनोपयोगकी पूर्वोक्त उपयोगात्मकताको लेकर यदि विचार किया जाय तो यही तत्त्व निष्पन्न होता है कि छद्मस्थ जीवोंको दर्शनोपयोगके अनन्तर ही ज्ञानोपयोग होता है व सर्वज्ञको दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग दोनों साथ-साथ ही हुआ करते है । जैसा कि द्रव्यसंग्रहकी निम्नलिखित गाथासे स्पष्ट है "दंसणपुव्वं णाणं छदुमत्थाणं ण दुण्णि उवओगा । जुगवं जम्हा केवलिणाहे जुगवं तु ते दो वि ॥४४॥" अर्थ-छद्मस्थ (अल्पज्ञ) जीवोंको दर्शनोपयोगपूर्वक अर्थात दर्शनोपयोगके अनन्तर पश्चात ज्ञानोपयोग हुआ करता है क्योंकि उनके ये दोनों उपयोग एकसाथ नहीं हआ करते हैं लेकिन सर्वज्ञके ये दोनों उपयोग एक ही साथ हुआ करते हैं। दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोगकी छद्मस्थ (अल्पज्ञ) और सर्वज्ञकी अपेक्षासे क्रम और योगपद्य रूप उपर्युक्त व्यवस्थाको स्वीकृत करनेका आधार यह है कि सर्वज्ञके ज्ञान में संपूर्ण पदार्थ कालके प्रत्येक क्षणसे विभाजित अपनीअपनी समस्त त्रैकालिक पर्यायोंके साथ सतत् प्रतिभासित होते रहते हैं अर्थात् कालका ऐसा एक क्षण भी नहीं है जिसमें सम्पूर्ण पदार्थोंका अपनी-अपनी उक्त प्रकारकी समस्त कालिक पर्यायोंके साथ प्रतिभास न होता हो,क्योंकि उसका (सर्वज्ञका) ज्ञान भी पूर्वोक्त प्रकारके दर्शनका अवलम्बन लेकर ही उत्पन्न हुआ करता है। यतः उसके दर्शन और ज्ञानमें सहभावीपना निश्चित हो जाता है। यतः अल्पज्ञका ज्ञान विषयीकृत पदार्थकी क्षणवर्ती पर्यायको पकड़नेमें असमर्थ रहता है क्योंकि वह अन्तर्मुहुर्तवर्ती पर्यायोंकी स्थूलरूपताको हो सतत एक पर्या यके रूपमें ग्रहण करता है अतः उसके ज्ञान क्षणिक विभाजन नहीं हो पाता है। दूसरी बात यह है कि सर्वज्ञका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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