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________________ १६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य पारगामी मनीषी मुख्तार सा०के प्रति इतनी अनन्य निष्ठा आप (बंशीधरजी) की निकट भव्यताको सूचित करती है। ___ बंशीधरजीसे कादाचित्क होनेवाले पत्राचारसे तो वर्षों से मेरा परिचय था। प्रत्यक्ष परिचय मई, जून ८७ में धवला वाचनाके कालमें ललितपुरमें हुआ। चर्चाओं-परिचर्चाओंके दौरान आप बहुत सरल स्वाभावी, समता शान्तिसे प्राश्निकके प्रश्नोंका समाधान करनेवाले सूरि प्रतीत हुए। एकान्तका विरोध आपका ध्येय रहा; जो प्रशस्य ही है। आगममें विभिन्न स्थलों पर किये गये समीचीन अर्थोका परिमार्जन आपकी करणीय कार्योको लिस्टमें निहित है । धवलामें शोधन विषयक आपने मुझे हिदायत भी ललितपुरमें ही दी थी। आर्षमार्गके उद्योतक पण्डित बंशीधरजीके दीर्घजीवित्व, स्वस्थता, सदा प्रसन्नता आगम प्रणवन तल्लीनता, मुनि मार्ग पोषणको अनवरत साधना तथा अनेकान्त सम्पोषणका सातत्यकी सदा कामना करता हूँ। आपका मार्ग सदा प्रशस्त रहे । शुभास्ते पन्थान' । भद्रम् भूयात् । सरलता व सहजताके धनी .पं० राजकुमार जैन शास्त्री, दमोह . ज्ञानवृद्ध एवं वयोवृद्ध पं० बंशीधरजीको व्याकरणाचार्यके नामसे समूचा प्रबुद्ध व विद्वत् वर्ग अच्छी तरह जानता है। उन्होंने अपने समस्त बीते हुए जीवनको सरस्वतीके संरक्षण व सम्वर्धनमें समर्पित तो किया ही है साथ ही बहुजन हिताय, बहुजन सुखायकी सूक्तिको कृतार्थ करके चरितार्थ कर दिया। समाज, धर्म और राष्ट्रहितमें अपने जीवनको समर्पित किया। वे बड़े सरल एवं सहज हैं। मैं प्रभुसे यही कामना करता हूँ कि वे चिरायु हों और अपने अक्षुण्ण ज्ञानकोषको मुक्त हस्तसे वितरित करते रहें ।। समाजके लिये गौरव .५० भगवानदास जैन शास्त्री, रायपुर समाजके मूर्धन्य विद्वान् व्याकरणाचार्यका अभिनन्दन समाजके लिये गौरवकी ही बात है। विद्वान समाज व राष्ट्रके दर्पण होते हैं। वे समाजके प्रतिनिधि, पथप्रदर्शक एवं उन्नायक होते हैं। उन्हींके विचारों व प्रेरणाओंसे समाजको बल मिलता है। समाज उनकी सेवाओंसे कभी उऋण नहीं हो सकता। पण्डित बंशीधरजी मेरे अनन्य मित्र व अन्यतम सहपाठी हैं । हम दोनों स्याद्वाद जैन विद्यालय, काशीके एक ही छात्रावासमें रहते थे। यद्यपि विद्यार्थी जीवनके पश्चात् मात्र ५-६ बार उनसे भेंट हो सकी, किन्तु मैं उनकी स्वतन्त्र विचार-बुद्धि, विनयशीलता तथा स्वाभिमानी स्वभावसे अच्छी तरह परिचित हूँ। मुझे याद है कि एक बार रसोइयेसे अनबन हो जानेके कारण उन्होंने अपने हाथोंसे ही भोजन बनाना प्रारम्भकर दिया था। आपकी समालोचक बुद्धि छात्र जीवनसे ही विकसित हई। आपने अपने विचारोंकी अभिव्यक्तिके लिये ६ स्वतन्त्र पुस्तकें भी लिखीं, जो समाजके लिये अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हई। आपके सम्बन्धमें यही कहा जा सकता है कि स जातो येन जातेन येन तत्त्वं समीक्षितम् । परिवर्तनि संसारे मृतः को वा न जायते ॥ इन्हीं विचारोंके साथ मैं अपनी अशेष मंगल कामनायें व्यक्त करता हूँ कि श्री व्याकरणाचार्यजी यशस्वी, सुदीर्घ, नीरोगतापूर्ण जीवनका उपभोग प्राप्त करें तथा समाजकी निरन्तर सेवा करते रहें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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