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________________ १ / आशीर्वचन, संस्मरण, शुभकामनाएं : १५ क्या तुम्हारे सहपाठी देव हैं ? •पं० अमृतलाल जैन, शास्त्री, साहित्य-जैन दर्शनाचार्य, लाडनूं सन् १९३३ की बात है । मैं उस समय श्री गो० दि० जैन सि० महाविद्यालय, मोरेनाका छात्र था। उस समय वहाँ केवल चार ही विशिष्ट विद्वानोंके नाम गिनाये जाते थे-सर्वश्री न्यायालङ्कार, वादीभकेसरी, पं० मक्खनलालजी शास्त्री, पं० खुबचन्द्रजी शास्त्री, इन्दौर, बंशीधरजी पण्डीत. सोलापर (आप अपने नामके आगे पण्डीत लिखा करते थे, न कि पण्डित) और पं० माणिकचन्द्रजी न्यायाचार्य, सहारनपुर । पं० शीधरजी व्याकरणाचार्यका नाम नहीं सुना था। आप अपने भतीजे पं० बालचन्द्रजी सि० शास्त्री, प्राचार्य दि० जैन विद्यालय, जारखी (आगरा) से मिलने गये थे। वहाँसे लौटते समय आप मोरेना विद्यालयमें पधारे थे। आपसे मिलकर सभी (बुन्देलखण्डी) छात्रोंको-जो प्रायः बड़ी कक्षाओंके थे—यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई थी कि आप दि० जैन समाजके सर्वप्रथम व्याकरणाचार्य है। आपने लगातार ग्यारह वर्ष परिश्रम करके प्रथमा, मध्यमा, शास्त्री और आचार्य के सभी खण्डोंमें प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होकर 'आचार्य' उपाधि प्राप्त की थी। (पू० पं० गणेशप्रसादजी वर्णी और पं० माणिकचन्द्रजीने आचार्यके सभी खण्ड पास नहीं किये थे ।) फलतः उक्त छात्रोंने आपके अभिनन्दनार्थ सभा करनेका विचार किया। किन्तु...। वहाँ उस समय कोई बुन्देलखण्डी विद्वान, विद्वानोंकी कोटिमें गणनीय नहीं हो सकता था। आप असाधारण विद्वान् है फिर भी निरहङ्कार और मिलनसार हैं-ऐसा अनुभव करके मैं भी आपसे ला। पूछनेपर मैंने आपसे कहा मैं बमराना (झांसी) का निवासी हैं यहाँ गतवर्ष आया था। इस वर्ष सर्वार्थसिद्धि, प्रमेयरत्नमाला, पुरुदेवचम्पू, वाग्भटालङ्कार, शाकटायन और अंग्रेजी पढ़ता हूँ। प्राय : मासिक आदि सभी परीक्षाओंमें मेरे नम्बर धर्म आदि विषयोंमें सहपाठियोंसे अधिक आते हैं, पर व्याकरणमें सबसे कम ३३ या ३४ । आपने पूछा-ऐसा क्यों ? क्या तुम्हारे सहपाठी देव है ? मैंने उत्तर दिया-देव तो नहीं हैं, पर वे सभी खब रटते हैं, मैं रटता नहीं, केवल समझनेका प्रयत्न करता है। आपने समझाया कि सूत्र रटना चाहिये, सूत्र रटे बिना व्याकरणका ज्ञान नहीं हो सकता और इसके बिना संस्कृतसे अनभिज्ञ रहोगे। ये बातें मेरी समझमें आ गई और आपका यह प्रश्न-'क्या तुम्हारे सहपाठी देव हैं ? मेरे मन में घर कर गया । इसलिये मैंने उसी दिनसे सूत्र रटना प्रारम्भ कर दिया, साधन प्रक्रियाको तो पहलेसे ही समझ रखा था। फलतः त्रैमासिक आदि सभी परीक्षाओंमें और सोलापुर एवं महासभाकी परीक्षाओंमें भी ८०-८० नम्बर प्राप्त हुए तथा प्रथम पुरस्कार भी। उस वर्ष दोनों ही परीक्षालयोंसे कुल मिलाकर अठारह रु० पुरस्कार या पारितोषिकके रूपमें मिले थे। यह आपके 'क्या तुम्हारे सहपाठी देव हैं ?-इस प्रश्नके प्रभावसे ही हुआ। तभीसे आपके साथ मेरा सम्बन्ध बना हुआ है। एकान्तका विरोध आपका लक्ष्य .पं. जवाहरलाल जैन, भीण्डर (राजस्थान) परमश्रद्धास्पद बंशीधरजी ग्यारह वर्षों तक काशी महाविद्यालयमें पढ़े थे। आज आप भारतके प्राचीनतम विद्वानोंमेंसे एक हैं । स्याद्वादकी रक्षा आपका लक्ष्य सदा रहा है । आचार्य शिवसागर महामुनिकी छत्र-छायामें हुई तत्त्वचर्चा (खानियाजी-जयपुर) में आप तथा रतनचन्द्र मुख्तार प्रमुख थे । पूज्य स्व० रतनचन्द्र मख्तार मेरे गुरुवर थे। उनके प्रति बंशीधरजीकी वर्षोंसे अपार श्रद्धानिष्ठ मैत्री रहो थी। इसका पुष्टप्रमाण यह भी है कि जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा प्रथम भाग नामक ग्रन्थार्ध आपने पूज्य स्व० मुख्तार सा० की स्मृतिमें उन्हें ही समर्पित किया है । आगमके सर्वोपरि शाश्वत अनुगामी, करणानुयोगके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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