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________________ १८८ : सरस्वती-वरवपुत्र पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ कर्मका उदय प्रथम गुणस्थानसे लेकर पंचम गुणस्थानके अन्त समयतक रहा करता है व षष्ठ गुणस्थानमें और उसके आगे उसका क्षयोपशम ही रहा करता है तथा इन सभी गुणस्थानोंमें संज्वलन क्रोध कर्मका उदय ही रहा करता है। परन्तु संज्वलनक्रोधकर्मका उदय व अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोधकर्मोका क्षयोपशम तब तक रहा करता है जब तक नवम गुणस्थानमें इनका सर्वथा उपशम या क्षय नहीं हो जाता है। अप्रत्याख्यानावर ग क्रोध कर्मका बन्ध चतुर्थ गुणस्थान तक ही होता है। प्रत्याख्यानावरण क्रोध कर्मका बन्ध पंचम गुणस्थान तक ही होता है और संज्वलन क्रोध कर्मका बन्ध नवम गुणस्थानके एक निश्चित भाग तक ही होता है। इन सबके बन्धका कारण जीवकी भाववती शक्तिके हृदय और मस्तिष्क के सहारेपर होनेवाले यथायोग्य परिणमनोंसे प्रभावित जीवकी क्रियावती शक्तिका मानसिक, वाचनिक और कायिक यथायोग्य प्रवृत्तिरूप परिणमन ही है। जीव चतुर्थ गुणस्थानमें जब तक आरंभीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका यथायोग्य रूपमें एकदेश त्याग नहीं करता तब तक तो उसके अप्रत्याख्यानावरण क्रोध कर्मका बन्ध होता ही रहता है । परन्तु वह जीव यदि आरंभीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका एकदेश त्याग कर देता है और उस त्यागके आधारपर उसमें कदाचित् उस अप्रत्याख्यानावरण क्रोध कर्मके क्षयोपशमकी क्षमता प्राप्त हो जाती है तो उस जीवमें उस क्रोध कर्मके बन्धका अभाव हो जाता है। यह व्यवस्था चतुर्थ गुणस्थानके समान प्रथम और तृतीय गुणस्थानोंमें भी लागू होती है । इसी तरह जीव पंचम गुणस्थानमें जब तक आरंभीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका सर्वदेश त्याग नहीं करता तब तक तो उसके प्रत्याख्यानावरण क्रोधकर्मका बन्ध होता ही है । परन्तु यह जीव यदि आरंभीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका सर्वदेश त्याग कर देता है और इस त्यागके आधारपर उसमें कदाचित् उस अप्रत्याख्यानावरण क्रोध कर्मके क्षयोपशमकी क्षमता प्राप्त हो जाती है तो में उस क्रोध कर्मके बन्धका अभाव हो जाता है। यह व्यवस्था पंचम गणस्थानके समान प्रथम, तृतीय और चतुर्थ गुणस्थानोंमें भी लागू होती है । पंचम गुणस्थानके आगेके गुणस्थानोंमें तब तक जीव संज्वलनक्रोधकर्मका बन्ध करता रहता है जब तक वह नवम गुणस्थानमें बन्धके अनुकूल अपनी मानसिक, वाचनिक और कायिक प्रवृत्ति करता रहता है। और जब वह नवम गुणस्थानमें संज्वलनक्रोध कर्मके उपशम या क्षयकी क्षमता प्राप्त कर लेता है तो उस जीवके उस क्रोधकर्मके बन्धका अभाव हो जाता है। इतना विवेचन करने में मेरा उददेश्य इस बातको स्पष्ट करनेका है कि जीवकी क्रियावती शक्तिके मानसिक, वाचनिक और कायिक अदयारूप अशुभ और दयारूप शुभ प्रवृत्तियोंके रूपमें होनेवाले परिणमन ही क्रोधकर्मके आस्रव और बन्धमें कारण होते हैं व उन प्रवृत्तियोंका निरोध करनेसे ही उन क्रोध कर्मोका संवर और निर्जरण करनेकी क्षमता जीवमें आती है। जीवकी भाववती शक्तिका न तो मोहनीय कर्मके उदयमें होनेवाला विभावरूप परिणमन आस्रव और बन्धका कारण होता है और न ही मोहनीय कर्मके उपशम, क्षय या क्षयोपशममें होनेवाला भाववती शक्तिका स्वभावरूप शुद्ध परिणमन संवर और निर्जराका कारण होता है। इतना अवश्य है कि जीवकी भाववतीशक्तिके हृदयके सहारेपर होनेवाले तत्त्वश्रद्धानरूप शुभ और अतत्त्वश्रद्धानरूप अशुभ तथा मस्तिष्कके सहारेपर होनेवाले तत्वज्ञानरूप शुभ और अतत्त्वज्ञानरूप अशुभ परिणमन अपनी शुभरूपता और अशुभरूपताके आधारपर यथायोग्य शुभ और अशभ कर्मोके आस्रव और बन्धके परम्परया कारण होते हैं व तत्त्वश्रद्धान व्यवहार सम्यग्दर्शनके रूप में तथा तत्त्वज्ञान व्यवहारसम्यग्ज्ञानके रूपमें यथायोग्य कर्मोके आस्रव और बन्धके साथ यथायोग्य कर्मोंके संवर और निर्जराके भी परम्परया कारण होते है। इस विवेचनसे यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि क्रियावतीशक्तिके परिणमनस्वरूप जीवकी मानसिक, वाचनिक और कायिक अदयारूप अशुभ और दयारूप शुभ प्रवृत्तियाँ यथायोग्य अशुभ और शुभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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