SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 458
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १८७ किया करते हैं । कोई अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभके साथ पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्तिको कर्त्तव्यवश किया करते | कोई अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके सर्वथा त्यागपूर्वक आरम्भीपापमय अदयारूप शुभ प्रवृत्तिके साथ कर्त्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं एवं कोई अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति सर्वथा व आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके एकदेश अथवा सर्वदेश त्यागपूर्वक कर्त्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं । (२) कोई सासादन सम्यग्दृष्टि जीव सामान्यरूपसे संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति के साथ पूर्व - संस्कारके बलपर कर्त्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं । कोई सासादन सम्यग्दृष्टि जीव पूर्व - संस्कारके बलपर संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वथा निवृत्तिपूर्वक आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके साथ कर्त्तव्यवश पुण्यमय अदयारूप शुभरूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं और कोई सासादन सम्यग्दृष्टि जीव पूर्वसंस्कारवश संकल्पोपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वथा व आरम्भीपापरूप अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे एकदेश अथवा सर्वदेश निवृत्तिपूर्वक कर्त्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं । परन्तु सासादन सम्यग्दृष्टि जीवकी यथायोग्य ये सब प्रवृत्तियाँ अबुद्धिपूर्वक ही हुआ करती हैं । (३) सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव यद्यपि भव्य मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके समान ही प्रवृत्ति ही किया करते हैं परन्तु उनमें इतनी विशेषता है कि वे संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति किसी भी रूपमें नहीं करते हैं । तथा सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवकी भी प्रवृत्तियाँ सासादन सम्यग्दृष्टि जीवके समान पूर्व ही हुआ करती हैं । (४) चथुर्थ गुणस्थान से लेकर आगेके गुणस्थानों में विद्यमान सभी जीव संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वथा रहित होते हैं । इस तरह चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीव या तो अशक्तिवश आरम्भीपापमय दयारूप अशुभ प्रवृत्तिके साथ कर्त्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं अथवा आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे एकदेश या सर्वदेश निवृत्तिपूर्वक कर्त्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं । (५) पंचम गुणस्थानवर्ती जीव नियमसे आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे एकदेश निवृत्तिपूर्वक दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं, क्योंकि ऐसा किये बिना जीवको पंचम गुणस्थान कदापि प्राप्त नहीं होता है । इतना अवश्य है कि कोई पंचम गुणस्थानवर्ती जीव आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वदेश निवृत्तिपूर्वक भी कर्त्तव्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं । (६) षष्ठ गुणस्थानवर्ती जीव नियमसे आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वदेश निवृत्तिपूर्वक कर्त्तव्यवश पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति किया करते हैं; क्योंकि ऐसा किये बिना जीवको षष्ठ गुणस्थान प्राप्त नहीं होता । (७) षष्ठ गुणस्थानसे आगेके गुणस्थानोंमें जीव आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे सर्वथा निवृत्त रहता है तथा पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति भी बाह्यरूपमें नहीं करते हुए अन्तरंगरूप में हो तब तक करता रहता है जब तक नवम गुणस्थान में उसकी अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलनकषायों को प्रकृतियों के सर्वथा उपशम या क्षय करनेकी क्षमता प्राप्त नहीं होती । तात्पर्य यह है कि जीवके अप्रत्या- ' ख्यानावरण क्रोधकर्मका उदय प्रथम गुणस्थानसे लेकर चतुर्थ गुणस्थानके अन्त समय तक रहता है व पंचम गुणस्थान में और उसके आगे उसका क्षयोपशम ही रहा करता है । इसी तरह जीवके प्रत्याख्यानावरण क्रोध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy