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________________ ३ / धर्म और सिद्धांत : १८९ कर्मोके आस्रव और बन्धका साक्षात् कारण होती हैं तथा अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिपूर्वक होमेवाली दयारूप शुभ प्रवृत्ति यथायोग्य कर्मोके आस्रव और बन्धके साथ यथायोग्य कर्मोंके संवर और निर्जरणका साक्षात् कारण होती है एवं जीवकी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप तथा दयारूप शुभरूपता और अदयारूप अशुभरूपतासे रहित जीवको मानसिक, वाचनिक और कायिक योगरूप प्रवृत्ति मात्र सातावेदनीय कर्मके आस्रवपूर्वक केवल प्रकृति और प्रदेशरूप बन्धका कारण होती है तथा योगका अभाव कर्मों के संवर और निर्जरणका कारण होता है । इस सामान्य समीक्षाके सम्पूर्ण विवेचनसे यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि जीव-दया पुण्यरूप भी होती है, जीवके शुद्ध स्वभावभत निश्चय धर्मरूप भी होती है व इस निश्चय धर्मरूप जीवदयाकी उत्पत्तिमें कारणभूत व्यवहार धर्मरूप भो होतो है । अर्थात् तीनों प्रकारको जीवदयाएँ अपना-अपना स्वतन्त्र अस्तित्व और महत्त्व रखती हैं। प्रश्नोत्तर ४ को सामान्य समीक्षा १. प्रश्नोत्तर ४ की सामान्य समीक्षा पूर्वपक्षका प्रश्न-व्यवहारधर्म निश्चयधर्म में साधक है या नहीं? त० च० पृ० १२९ । उत्तरपक्षका उत्तर--निश्चय रत्नत्रयस्वरूप निश्चयधर्मकी उत्पत्तिकी अपेक्षा विचार किया जाता है तो व्यवहारधर्म निश्चयधर्ममें साधक नहीं है, क्योंकि निश्चयधर्मको उत्पत्ति परनिरपेक्ष होती है । त० च. पृ० १२९ । धर्मका लक्षण वस्तुविज्ञान (द्रव्यानुयोग) को दृष्टिसे "वत्युसहाओ धम्मो" इस आगम वचनके अनुसार धर्म यद्यपि आत्माके स्वतःसिद्ध स्वभावका नाम है, परन्तु अध्यात्म विज्ञान (करणानुयोग और चरणानुयोग) की दृष्टिसे धर्म उसे कहते हैं जो जीवको संसारदुःखसे छुड़ाकर उत्तम अर्थात् आत्मस्वातन्त्र्य रूप मोक्षसुखमें पहुँचा देता।' आध्यात्मिक धर्मका विश्लेषण रत्नकरण्डकश्रावकाचार में आध्यात्मिक धर्मका विश्लेषण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रके रूपमें किया गया है जिन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रके विरोधो मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र संसारके कारण होते हैं। आध्यात्मिक धर्मका निश्चय और व्यवहार दो रूपोंमें विभाजन और उनमें साध्य-साधक भाव श्रद्धेय पं० दौलतरामजीने छहढाला में कहा है कि आत्माका हित सुख है । वह सुख आकुलताके १. देशयामि समीचीनं धर्म कर्मनिवर्हणम् । संसारदुःखतः सत्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ।।२।। -रत्नकरण्डकश्रावकाचार २. सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः । यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भव पद्धतिः ।।३॥ ---रत्नकरण्डकथावकाचार ३. आतम को हित है सुख सो सुख आकुलता बिन कहिये । आकुलता शिवमाहिं न तातें शिवमग लाग्यो चहिये । सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण शिव मग सो दुविध विचारो। जो सत्यारथ रूप सो निश्चय कारण सो ववहारो॥३-१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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