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________________ १८६ : सरस्वती - वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन - प्रन्य कायगुप्तिके रूप में एक देश अथवा सर्वदेश त्यागकर कर्त्तव्यवश मानसिक, वाचनिक और कायिक पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति करने लगते हैं तो भी वे कर्मोंका आस्रव और बन्ध ही किया करते हैं । ( ) अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव उक्त संकल्पीपागमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका सर्वथा त्याग कर उक्त आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके साथ कर्त्त व्यवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति करते हुए अथवा उक्त संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका सर्वथा व उक्त आरंभीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका एकदेश या सर्वदेश त्याग कर कर्त्तव्यवश पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति करते हुए यदि क्षयोपशम विशुद्धि, देशना और प्रयोग्य लब्धियोंका अपने में विकास कर लेते हैं तो भी वे कर्मोंका आस्रव और बन्ध ही किया करते हैं । ( ६ ) यतः मिथ्यात्व गुणस्थानके अतिरिक्त सभी गुणस्थान भव्य जीवके हो होते हैं अभव्य जीवके नहीं, अतः जो भव्य जीव सासादन सम्यग्दृष्टि हो रहे हों उनमें भी उक्त पाँचों अनुच्छेदों मेंसे दो, तीन और चार संख्यक अनुच्छेदोंमें प्रतिपादित व्यवस्थाएँ यथायोग्य पूर्वसंस्कारवश या सामान्यरूपसे लागू होती हैं तथा अनुच्छेद तीन और चार में प्रतिपादित व्यवस्थाएं मिथ्यात्व गुणस्थानकी ओर झुके हुए सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवों में भी लागू होती हैं । सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंमें अनुच्छेद एकमें प्रतिपादित व्यवस्था इसलिए लागू नहीं होती कि वे जीव एक तो केवल संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति कदापि नहीं करते हैं व उनकी प्रवृत्ति अबुद्धिपूर्वक होनेके कारण पुण्यमय दयारूप प्रवृत्ति भी सांसारिक स्वार्थवश नहीं करते हैं । तथा उनमें अनुच्छेद पाँच प्रतिपादित व्यवस्था इसलिए लागू नहीं होती कि वे अपना समय व्यतीत करके नियमसे मिथ्यात्व गुणस्थानको ही प्राप्त करते हैं । इसी तरह मिथ्यात्व गुणस्थानको ओर झुके हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में अनुच्छेद एक और दोमें प्रतिपादित व्यवस्थाएँ इसीलिए लागू नहीं होतीं क्योंकि उनमें संकल्पोपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका सर्वथा अभाव रहता है तथा उनमें अनुच्छेद पाँच की व्यवस्था इसलिए लागू नहीं होती कि वे भी मिथ्यात्व गुणस्थानकी ओर झुके हुए होनेके कारण अपना समय व्यतीत करके मिथ्यात्व गुणस्थानको ही प्राप्त करते हैं । इस तरह सासादन सम्यग्दृष्टि और मिथ्यात्व गुणस्थानकी ओर झुके हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सतत यथायोग्य कर्मोंका आस्रव और बन्ध ही किया करते हैं । यहाँ यह ध्यातव्य कि सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके साथ सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंकी प्रवृत्तियाँ भी अबुद्धिपूर्वक हुआ करती हैं । (७) उपर्युक्त जीवोंसे अतिरिक्त जो भव्य मिथ्यादृष्टि जीव और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्त्व प्राप्तिकी ओर झुके हुए हों अर्थात् सम्यक्त्व प्राप्ति में अनिवार्य कारणभूत करणलब्धिको प्राप्त हो गये हों वे नियमसे यथायोग्य कर्मोंका आस्रव और बन्ध करते हुए भी दर्शनमोहनीय कर्मकी यथासम्भवरूप में विद्यमान मिथ्यातत्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृतिरूप तीन तथा चारित्रमोहनीयकर्म के प्रथम भेद अनन्तानुबन्धी कषायकी नियमसे विद्यमान क्रोध, मान, माया और लोभरूप चार इस तरह सात कर्मप्रकृतियोंका उपशम, क्षय या क्षयोपशमके रूप में संवर और निर्जरण किया करते हैं । इसी तरह चतुर्थ गुणस्थान से लेकर आगे के गुणस्थानों में विद्यमान जीव भी यथायोग्य कर्मोंका आसव और बन्ध तथा यथायोग्य कर्मोंका संवर और निर्जरण किया करते हैं । उपर्युक्त विवेचनाका फलितार्थं ( १ ) कोई अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्ति ही किया करते हैं । अथवा संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके साथ सांसारिक स्वार्थवश पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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