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________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १७१ अवसरपर पं० फलचन्द्रजीने मेरे समक्ष एक प्रस्ताव इस आशयका रखा था कि चर्चाके लिए जितने प्रश्न उपस्थित किये जायेंगे वे सब उभय पक्षकी सहमतिसे ही उपस्थित किये जायेंगे और उपस्थित सभी प्रश्नोंपर दोनों पक्ष प्रथमतः अपने-अपने विचार आगमके समर्थन पूर्वक एक दूसरे पक्षके समक्ष प्रस्तुत करेंगे तथा दोनों ही पक्ष एक दूसरे पक्षके समक्ष रखे गये उन विचारोंपर आगमके आधारपर ही अपनी आलोचनाएँ एक दूसरे पक्ष के समक्ष प्रस्तुत करेंगे और अन्तमें दोनों ही पक्ष उन आलोचनाओंका उत्तर भी आगमसे प्रमाणित करते हुए एक दूसरे पक्षके समक्ष प्रस्तुत करेंगे। यद्यपि पं० फूलचन्द्र जीके इस प्रस्तावको मैंने सहर्ष तत्काल स्वीकार कर लिया था, परन्तु चर्चाके अवसरपर पं० फुलचन्द्रजी सोनगढ़के प्रतिनिधि नेमिचन्द्रजी पाटनीके दुराग्रहके सामने झुककर अपने उक्त प्रस्तावको रचनात्मक रूप देनेके लिए तैयार नहीं हुए। इसका परिणाम यह हुआ कि जो सभी प्रश्न उभय पक्ष सम्मत होकर दोनों पक्षोंको समान रूपसे विचारणीय थे, वे पूर्वपक्षके प्रश्न बनकर रह गये और उत्तरपक्ष उनका समाधानकर्ता बन गया । यतः प्रश्नोंको प्रस्तत करने में पर्वपक्षने प्रमख भमिकाका निर्वाह किया था, अतः उसे एक तो पं० फूलचन्द्रजीके उक्त परिवर्तित रुखको देखकर उसको दृष्टिसे ओझल कर देना पड़ा और दूसरी बात यह भी थी कि उसके सामने तत्त्वनिर्णयका उददेश्य प्रमख था व उसको अणु मात्र भी यह कल्पना नहीं थी कि उत्तरपक्ष पूर्वपक्षकी इस सहनशीलताका दुरुपयोग करेगा। परन्तु तत्त्वचर्चा अध्ययनसे यह स्पष्ट होता है कि उत्तर पक्षने पूर्वपक्षकी सहनशीलताका तत्त्वचर्चा में अधिकसे अधिक दुरुपयोग किया है। यह बात तत्त्वचर्चाकी इस समीक्षासे भी ज्ञात हो जायगी। समीक्षा लिखनेमें हेतु ___ यतः उभय पक्ष सम्मत वे सभी प्रश्न उपयुक्त प्रकार पूर्वपक्षके प्रश्न बन गये और उत्तरपक्ष उनका समाधानकर्ता । अतः इस समीक्षाका लिखना तत्त्वनिर्णय करनेकी दृष्टिसे आवश्यक हो गया है । एक बात और है कि पं० फूलचन्द्रजीके प्रस्तावके अनुसार दोनों पक्ष प्रत्येक प्रश्नपर यदि अपने-अपने विचार प्रस्तुत करते तो दोनों पक्षोंकी अन्तिम सामग्री एक-दूसरे पक्षकी समालोचनासे अछूती रहती। और इस तरह दोनों पक्षोंकी अन्तिम सामग्रीपर मतभेद रहनेपर तत्त्वनिर्णय करनेका अधिकार तत्त्वजिज्ञासुओंको प्राप्त होता। परन्तु जिस रूप में तत्त्वचर्चा सामने है उसमें अन्तिम उत्तर उत्तरपक्षका होनेसे तत्त्वजिज्ञासूओंको तत्त्वनिर्णय कर लेना सम्भव नहीं रह गया है । इस दृष्टिसे भी इस समीक्षाको उपयोगिता बढ़ गई है। उत्तरपक्ष द्वारा अपने उत्तरमें विपरीत परिस्थितियोंका निर्माण पूर्वमें बतलाया जा चुका है कि प्रकृत प्रश्नको प्रस्तुत करनेमें पूर्वपक्षका आशय इस बातको निर्णीत करनेका था कि द्रव्यकर्मका उदय संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमें निमित्त रूपसे अर्थात् सहायक होने रूपसे कार्यकारी होता है या वह वहाँ पर सर्वथा अकिंचित्कर ही बना रहता है व संसारी आत्मा द्रव्यकर्मके उदयका सहयोग प्राप्त किये बिना अपने आप ही विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमण करता रहता है। उत्तरपक्ष प्रश्नको प्रस्तुत करने में पूर्वपक्षके इस आशयको समझता भी था, अन्यथा वह अपने तृतीय दौरके अनुच्छेदमें पूर्वपक्षके प्रति ऐसा क्यों लिखता कि "एक ओर तो वह द्रव्यकमके उदयको निमित्त रूपसे स्वीकार करता है ।" परन्तु जानते हुए भी उसने अपने प्रथम दौरमें, प्रश्नका उत्तर न देकर उससे भिन्न नयविषयता और कर्त-कर्म सम्बन्धकी अप्रासंगिक और अनावश्यक चर्चाको प्रारम्भ कर दिया। इस तरह यह स्पष्ट हो जाता है कि उत्तरपक्षने अपने उत्तरमें विपरीत परिस्थितियोंका निर्माण किया है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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