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________________ १७२ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ इसके कारण ही पूर्वपक्षको अपने तृतीय दौरके अनुच्छेदमें यह लिखना पड़ा कि 'आपके द्वारा इस प्रश्नका उत्तर न तो प्रथम वक्तव्यमें दिया गया है और न दूसरे वक्तव्यमें दिया गया है-यद्यपि आपके प्रथम वक्तव्यके ऊपर प्रतिशंका उपस्थित करते हुए इस ओर आपका ध्यान दिलाया गया था। आपने अपने दोनों वक्तव्योंमें निमित्त-कर्तृ-कर्म सम्बन्धकी अप्रासंगिक चर्चा प्रारम्भ करके मूल प्रश्नके उत्तरको टालनेका प्रयत्न किया है। उत्तरपक्षका पूर्वपक्षपर उल्टा आरोप ऊपर किये गये स्पष्टीकरणसे यह ज्ञात हो जाता है कि उत्तरपक्षने अपने तृतीय दौरके अनु० २ में जो यह लिखा है कि 'वस्तुस्वरूपको स्पष्ट करनेकी दृष्टिसे जो उत्तर हमारी ओरसे दिया गया है वह अप्रासंगिक है या अपरपक्षका यह कथन अप्रासंगिक ही नहीं सिद्धान्तविरुद्ध है जिसमें उसकी ओरसे विकारका कारण बाह्य सामग्री है इसे यथार्थ कथन माना गया है।' सो उसका-उत्तरपक्षका ऐसा लिखना 'उल्टा चोर कोतवालको डाँटे' जैसा ही है, क्योंकि उसने स्वयं तो पूर्वपक्षके प्रश्नका उत्तर न देकर नयविषयता और कर्तृ-कर्म सम्बन्धकी अप्रासंगिक और अनावश्यक चर्चा प्रारम्भ की, लेकिन अपनी इस त्रुटिको स्वीकार न कर उसने अप्रासंगिकताका उल्टा पूर्वपक्षपर ही आरोप लगाया। इससे यही स्पष्ट होता है कि उत्तरपक्षने पूर्वपक्षके प्रश्नका उत्तर देनेमें आनाकानी की है और इसे छिपानेके लिये ही उसने उक्त अप्रासंगिक और अनावश्यक चर्चा प्रारम्भ की। यही कारण है कि उसके इस प्रयत्नको पूर्वपक्षने अपने वक्तव्यमें मूल प्रश्नके उत्तरको टालनेका प्रयत्न कहा है। इसी तरह उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त वक्तव्यमें जो यह लिखा है कि 'विकारका कारण बाह्यसामग्री है इसे यथार्थ कथन माना गया है' सो यह भी पूर्वपक्षके ऊपर उत्तरपक्षका मिथ्या आरोप है, क्योंकि पूर्वपक्ष, जैसाकि पूर्व में स्पष्ट किया जा चका है, विकारकी कारणभूत बाह्यसामग्रीको उत्तरपक्षके समान अयथार्थ कारण ही मानता है। इस विषयमें दोनों पक्षोंके मध्य यह मतभेद अवश्य है कि जहाँ उत्तरपक्ष विकारकी कारणभूत उस बाह्यसामग्रीको वहाँ पूर्वोक्त प्रकार सर्वथा अकिंचित्कर रूपमें अयथार्थ कारण मानता है वहाँ पूर्वपक्ष उसे वहाँ पूर्वोक्तप्रकार ही कथंचित् अकिंचित्कर और कथंचित् कार्यकारी रूपमें अयथार्थ कारण मानता है। दोनों पक्षोंकी परस्पर विरोधी इन मान्यताओंमेंसे कौन-सी मान्यता आगमसम्मत है और कौन-सी आगमसम्मत नहीं है, इस पर आगे विचार किया जायगा। इसी प्रकार उत्तरपक्षने अपने तृतीय दौरके अनु० ३ में पूर्वपक्ष द्वारा तृतीय दौरमें उद्धृत 'द्वयकृतो लोके विकारो भवेत्' इस आगमवाक्यको लेकर उसपर (पूर्वपक्षपर) मिथ्या आरोप लगानेके लिये लिखा है कि 'अपरपक्षने पद्मनन्दिपंचविशंतिका २३-७ के 'द्वयकृतो लोके विकारो भवेत्' इस कथनको उद्धृत कर जो विकारको दो का कार्य बतलाया है सो वहाँ देखना यह है कि जो विकाररूप कार्य होता है वह किसी एक द्रव्यकी विभावपरिणति है या दो द्रव्योंकी मिलकर एक विभावपरिणति है ? वह दो द्रव्योंकी मिलकर एक विभावपरिणति है यह तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि दो द्रव्य मिलकर एक कार्यको त्रिकालमें नहीं कर सकते।' इस विषयमें मेरा कहना है और उत्तरपक्ष भी जानता है कि उक्त आगमवाक्यका यह अभिप्राय नहीं है कि दो द्रव्योंकी मिलकर एक विभावपरिणति होती है, अपितु उसका अभिप्राय यही है कि एक वस्तुकी विकारी परिणति दुसरी अनुकूल वस्तुका सहयोग मिलनेपर ही होती है व पूर्वपक्षने इसी आशयसे उक्त आगमवाक्यको अपने वक्तव्यमें उदधत किया है, दो द्रव्योंकी मिलकर एक विभावपरिणति होती है, इस आशयसे नहीं। इस तरह उत्तरपक्षका पूर्वपक्षपर यह आरोप लगाना भी मिथ्या है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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