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________________ १७०: सरस्वती-बरवपुत्र पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ द्रव्यकर्मको उस कार्यरूप परिणत न होने और संसारी आत्माको उस कार्यरूप परिणतिमें सहायक भी न होनेके आधारपर सर्वथा अभूतार्थ मानता है वहाँ पूर्वपक्ष उसे वहाँ पर उस कार्यरूप परिणत न होनेके आधार पर अभूतार्थ और संसारी आत्माकी उस कार्यरूप परिणतिमें सहायक होनेके आधारपर भूतार्थ मानता है। ४. यद्यपि दोनों ही पक्ष प्रकृत कार्य के प्रति उपादानकारण, यथार्थकारण और मुख्य कर्ता रूपसे स्वीकृत संसारी आत्माको उस कार्यरूप परिणत होनेके आधारपर भूतार्थ मानकर निश्चयनयका विषय मानते हैं, परन्तु जहाँ उत्तरपक्ष उसी कार्य के प्रति निमित्तकारण, यथार्थकारण और उपचरित कर्ता रूपसे स्वीकृत उदयपर्याय विशिष्ट द्रव्यकर्मको उस कार्य रूप परिणत न होने और संसारी आत्माकी उस कार्य रूप परिणतिमें सहायक भी न होनेके आधार पर सर्वथा अभूतार्थ मानकर व्यवहारनयका विषय मानता है वहाँ पूर्वपक्ष उसे वहाँ पर उस कार्य रूप परिणत न होनेके आधार पर अभूतार्थ और संसारी आत्माकी उस कार्य रूप परिणतिमें सहायक होनेके आधारपर भूतार्थ मानकर व्यवहारनयका विषय मानता है। उपर्युक्त विवेचनका निष्कर्ष यह है कि संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणरूप कार्यके प्रति दोनों पक्षोंके मध्य न तो संसारी आत्माको उपादान कारण, यथार्थकारण और मुख्य कर्ता माननेके विषयमें विवाद है और न उसकी कार्यकारिता, भूतार्थता और निश्चयनय विषयताके विषयमें विवाद है। इसी तरह उसी कार्यके प्रति दोनों पक्षोंके मध्य न तो उदयपर्याय विशिष्ट द्रव्यकर्मको निमित्त कारण, अयथार्थ कारण और उपचरितकर्ता माननेके विषयमें विवाद है और न उसकी व्यवहारनयविषयताके विषयमें विवाद है। दोनों पक्षोंके मध्य विवाद केवल उक्त कार्य के प्रति उदयपर्यायविशिष्ट द्रव्यकर्मकी उत्तरपक्षको मान्य सर्वथा अकिंचित्करता और सर्वथा अभूतार्थता तथा पूर्व पक्षको मान्य कथंचित् अकिंचित्करता व । कथंचित् कार्यकारिता तथा कथंचित् अभूतार्थता व कथंचित् भूतार्थताके विषयमें है । उपयुक्त विवेचनके आधारपर दो विचारणीय बातें उपयुक्त विवेचनके आधार पर दो बातें विचारणीय हो जाती हैं। एक तो यह कि संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमें दोनों पक्षों द्वारा निमित्तकारणरूपसे स्वीकृत उदयपर्यायविशिष्ट द्रव्यकर्म को पूर्वपक्षकी मान्यताके अनुसार उस कार्यरूप परिणत न होने के आधार पर अकिंचित्कर और उपादान कारणभत संसारी आत्माकी उस कार्यरूप परिणतिमें सहायक होनेके आधारपर कार्यकारी माना जाए या उत्तरपक्षकी मान्यताके अनुसार उसे वहाँपर उस कार्य रूप परिणत न होने और उपादानकारणभत संसारी आत्माकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक भी न होनेके आधारपर सर्वथा अकिंचित्कर माना जाय । और दूसरो यह कि उस उदयपर्यायविशिष्ट द्रव्यकर्मको पूर्व पक्ष को मान्यताके अनुसार उपयुक्त प्रकारसे कथंचित् अकिंचित्कर व कथंचित कार्यकारी मानकर उस रूपमें कथंचित् अभूतार्थ और अथंचित् भूतार्थ माना जाय, व इस तरह उसे अभतार्थ और भतार्थरूपमें व्यवहारनयका विषय माना जाए या उत्तरपक्षकी मान्यताके अनुसार उसे वहाँपर उपयुक्त प्रकार सर्वथा अकिंचित्कर मानकर उस रूपमें सर्वथा अभूतार्थ माना जाए व इस तरह उसे सर्वथा अभतार्थ रूपमें व्यवहारनयका विषय माना जाए। उपयुक्त दोनों बातोंमेंसे प्रथम बातके सम्बन्धमें विचार करनेके उद्देश्यसे ही खानिया तत्त्वचर्चाके अवसरपर दोनों पक्षोंकी सहमतिपूर्वक उपयुक्त प्रथम प्रश्न उपस्थित किया गया था। इतना ही नहीं, खानिया तत्त्वचर्चाके सभी १७ प्रश्न उभयपक्षको सहमति पूर्वक ही चर्चाके लिये प्रस्तुत किये गये थे। यहाँ प्रसंगवश मैं इतना संकेत कर देना उचित समझता हूँ कि तत्त्वचर्चाकी भूमिका तैयार करनेके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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