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________________ ३ । धर्म और सिद्धान्त : १५५ आगे उत्पन्न होंगे उस रूप में हो वे केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञान में प्रतिभासित होते हैं। इससे निर्णीत होता है कि उन परिणमनोंकी उत्पत्तिका नियामक श्रुतज्ञानपर आधारित कार्य-कारण भाव ही होता है, केवलज्ञानमें होनेवाला उनका प्रतिभासन नहीं। फलतः कार्तिकेयानुप्रेक्षाकी गाथा-३२१-२२ के "जिस पदार्थका जिस देशमें और जिस कालमें जिस विधानसे जैसा परिणमन जिनेन्द्र भगवानने ज्ञात किया है उस पदार्थका उस देशमें और उस कालमें उस विधानसे वैसा ही परिणमन होता है।" इस कथनका व पद्मपुराण सर्ग-११० के श्लोक ४० के "जिस जीवके द्वारा जिस देशमें और जिस कालमें जिस कारणसे जैसा प्राप्तव्य है उस जीवका उस देशमें और उस कालमें उस कारणसे वैसा ही प्राप्त होता है" इस कथनका एवं भैया भगवतीदासके "जो जो देखी वीतरागने सो सो होसी वीरा रे" इस कथनका मात्र यही प्रयोजन ग्रहण करना उचित है कि जीव विवक्षित पदार्थके विवक्षित परिणमनकी सम्पन्नताके लिए तदनुकल कारणोंको जुटानेका जो प्रयत्न (पुरुषार्थ) करता है उसको सफलतामें वह अहंकार न करे व असफलतामें हताश होकर अकर्मण्य न हो जावे । इस प्रकार उत्तरपक्ष द्वारा पदार्थोके परिणमनोंकी उत्पत्तिको केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञानकी विषयताके आधारपर क्रमबद्ध मान्य किया जाना अयुक्त है व पूर्वपक्ष द्वारा पदार्थों के परिणमनोंकी उत्पत्तिको पूर्वोक्त प्रकार कार्यकारणभावके आधारपर क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध मान्य किया जाना युक्त है । एक बात और है कि सभी पदार्थ जब अनादिसिद्ध हैं तो उनके परिणमन भी अनादिकालसे होते आये हैं, जबकि केवलज्ञानकी सादिता आगमसिद्ध होनेसे दोनों ही पक्ष स्वीकार करते हैं। फलतः पदार्थों के परिणमनोंकी उत्पत्ति में उन परिणमनोंका केवलज्ञानमें प्रतिभासित होना कार्यकारी सिद्ध नहीं होता। इस बातको तृतीय दौरकी समीक्षामें विस्तारसे स्पष्ट किया जायगा। २. पूर्वमें स्पष्ट किया जा चुका है कि कार्योत्पत्ति के लिए कार्य-कारणभावका विश्लेषण श्रुतज्ञान द्वारा ही हो सकता है, केवलज्ञान द्वारा नहीं, अतः केवलज्ञानी जीव एक तो श्रुतज्ञानके अभावमें कार्य-कारणभावका विश्लेषण कर नहीं सकता है, दुसरे उसके कृतकृत्य हो जानेसे कार्योत्पत्तिके अनावश्यक हो जानेके कारण उसे कार्य-कारणभावका विश्लेषण करना आवश्यक नहीं है । यतः मतिज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीव एक तो श्रृतज्ञानके सदभाव में कार्यकारणभावका विश्लेषण करते हैं, दूसरे कृतकृत्य न होनेसे उन्हें कार्योत्पत्तिके लिए कार्य-कारणभावका विश्लेषण करना अनिवार्य भी है । अतएव मतिज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीव विवक्षित कार्यकी उत्पत्तिके लिए श्रुतज्ञान द्वारा कार्य-कारणभावका विश्लेषण करके ही कारणोंके जुटाने का प्रयत्न करते हैं। इसके अलावा यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि मतिज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीवोंको कार्योत्पत्ति के लिए प्रयत्न करनेके अवसरपर जिस प्रकार कार्य-कारणभावपर दृष्टि रखना आवश्यक है उस प्रकार केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञानकी विषयतापर दृष्टि रखना आवश्यक नहीं है । इससे सिद्ध होता है कि उत्तरपक्षद्वारा पदार्थोके परिणमनोंकी उत्पत्तिको केवलज्ञानी जीवकी केवलज्ञानकी विषयतापर आधारित क्रमबद्ध मान्य किया जाना अयुक्त है व पूर्वपक्ष द्वारा पदार्थों के परिणमनोंकी उत्पत्तिको कार्यकारणभावके आधारपर क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध मान्य किया जाना युक्त है। यहाँ इतना विशेष ज्ञातव्य है कि जीव द्वारा कार्योत्पत्ति के लिए श्रुतज्ञानके बलसे किया गया कार्यकारणभावका निर्णय यथायोग्य सम्यक् और मिथ्या दोनों प्रकारका हो सकता है, अतः वह निर्णय यदि सम्यक हो तो उसके आधारसे कार्योत्पत्तिके लिए किया गया जीवका प्रयत्न सफल होता है और यदि मिथ्या हो तो उसके आधारके कार्योत्पत्तिके लिए किया गया जीवका प्रयत्न असफल होता है। इसके अतिरिक्त जीव यदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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