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________________ १५६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ विवेकी है तो अपने प्रयत्नके सफल हो जानेपर वह अहंकार नहीं करता है और असफल हो जानेपर हताश होकर अकर्मण्य भी नहीं होता है। परन्तु जीव यदि अविवेको है तो वह अपने प्रयत्नके सफल होनेपर अहंकार करने लगता है व असफल होनेपर हताश होकर अकर्मण्य भी हो जाता है। ३. मतिज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीवोंको कार्योत्पत्तिके अवसरपर एक तो उसके विषयमें केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञान में क्या प्रतिभासित हो रहा है ? इसकी जानकारी (ज्ञान) होनेका कोई नियम नहीं है। वे तो मात्र 'जो जो देखी वीतारगने सो सो होसी वीरा रे" यह विकल्प ही कर सकते हैं। दूसरे. कार्योत्पत्तिके अवसर पर कदाचित किसी जीवको कार्योत्पत्ति के विषयमें केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञानमें जो प्रतिभासित हो रहा है उसका ज्ञान हो भी जावे, परन्तु वह जीव यदि अविवेकी है तो उस अविवेकके आधारपर वह अपना प्रयत्न विपरीत करनेको भी उद्यत हो सकता है। जैसे मारीचको तीर्थकर ऋषभदेवकी दिव्यध्वनिके श्रवणसे जब यह ज्ञात हुआ कि वह भी तीर्थकर होगा, तो 'नान्यथावादिनो जिनाः' ऐसा अटल विश्वास करके वह कुमार्गगामी बनकर नानाप्रकारको कुत्सित योनियों में बहुत काल तक भ्रमण करता रहा और जब वह सुबोधके आधारपर कुमार्गको त्यागकर सन्मार्गका पथिक बना तभी वह महावीरके रूपमें अन्तिम तीर्थंकर बन सका। इस विषयमें उत्तरपक्षका "मारीचको अन्तिम तीर्थंकर महावीर बनना था, इसलिए वह कुमार्गगामी बना ।" यह कथन तर्कपूर्ण नहीं माना जा सकता है, क्योंकि वह सन्मार्गपर चलकर उत्तम योनियोंमें भ्रमण करके भी अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर बन सकता था। इससे निर्णीत होता है कि उत्तरपक्ष द्वारा पदार्थोके परिणमनोंकी उत्पत्तिको केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञानकी विषयताके आधारपर मात्र क्रमबद्ध मान्य किया जाना युक्त नहीं है अपितु पूर्वपक्ष द्वारा उन परिणमनोंकी उत्पत्तिको कार्य-कारणभावके आधारपर क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध मान्य किया जाना युक्त है। ४. श्रीकानजी स्वामीने तो भैया भगवतीदासजीके 'जो-जो देखी वीतरागने सो-सो होसी वीरा रे' इस वचनपर आधारित पर्यायोंकी उत्पत्तिकी क्रमबद्धतामें अटूट विश्वास रखकर यहाँ तक मान लिया कि कार्योत्पत्तिके लिये किया जानेवाला जीवोंका प्रयत्न (पुरुषार्थ) भी उसी क्रमबद्धताका अंग है । इसका परिणाम यह हुआ कि जब उन्हें शारीरिक व्याधि हुई, तो वे अपनेको महान् अध्यात्ममार्गी व अध्यात्मके अभूतपूर्व उपदेष्टा मानते हुए भी राजसी वैभवमें लिप्त रहनेके कारण उस व्याधिको सहन नहीं कर सके और भैया भगवतीदासजोके उक्त वचनके आधारपर पुरुषार्थहीन होकर वे न केवल इस मार्गको भूल गये, अपितु भक्तोंकी प्रार्थना.और डाक्टरोंके सुझावोंकी उपेक्षा करके उस व्याधिसे छुटकारा पानेके लिए बम्बई जाकर जसलोक अस्पतालमें प्रविष्ट हुए एवं वहीं कालकवलित हो गये । इससे भी निर्णीत होता है कि उत्तरपक्ष द्वारा पदार्थोंके परिणमनोंकी उत्पत्तिको केवलज्ञानी जीवोंकी केवलज्ञानविषयताके आधारपर मात्र क्रमबद्ध मान्य किया जाना अयुक्त है, किन्तु पूर्वपक्ष द्वारा उन परिणमनोंकी उत्पत्तिको कार्य-कारणभावके आधरपर क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध मान्य किया जाना युक्त है। ५. माना कि तीर्थंकर नेमिनाथकी दिव्यध्वनिके श्रवणसे श्रोताओंको ज्ञात हुआ कि बारह वर्ष व्यतीत होने पर द्वारिकापुरी भस्म हो जायेगी और उसे भस्म न होने देनेके लिए लोगों द्वारा लाख करनेपर भी वह भस्म हो गयी, परन्तु इसमें ज्ञातव्य यह है कि द्वारिकापुरी तदनुरूप कारणोंके मिलनेपर ही भस्म हई वह तीर्थकर नेमिनाथके केवलज्ञान में होनेवाले प्रतिभासनके बलपर अथवा भगवान नेमिनाथकी दिव्यध्वनिके बलपर नहीं भस्म हुई। इसी प्रकार केवलज्ञानी जीवोंके समान मतिज्ञानी, अवधिज्ञानी और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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