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________________ १५४ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ करते हैं। एक बात और है कि मतिज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीव यतः कृतकृत्य नहीं होते, अतः उन्हें तो कार्योत्पत्तिके लिए कार्य-कारणभावका विश्लेषण करना अनिवार्य है, परन्तु केवलज्ञानी जीव यतः कृतकृत्य होते हैं, अतः उन्हें कार्योत्पत्तिके अनावश्यक हो जानेसे उसमें हेतुभूत कार्य-कारणभावका विश्लेषण करना आवश्यक नहीं है। पूर्वमें बतलाया जा चुका है कि विश्वमें एक आकाश, एक धर्म, एक अधर्म, असंख्यात काल, अनन्तजीव और अनन्त पुदगलरूप जितने पदार्थ विद्यमान हैं उन सबमें प्रतिसमय स्वप्रत्यय और स्व-परप्रत्ययके भेदसे दोनों प्रकारके परिणमन होते रहते हैं व उनमेंसे जो स्व-परप्रत्यय परिणमन हैं वे प्रेरक और उदासीन निमित्तोंके सहयोगपूर्वक ही होते हैं। एवं उन परिणमनोंकी उत्पत्तिके लिए पदार्थोंको प्रेरक और उदासीन निमित्तोंका सहयोग प्रायः निसर्गतः ही प्राप्त रहता है। परन्तु किन्हीं-किन्हीं पदार्थोंको उन प्रेरक और उदासीन निमित्तोंका सहयोग आवश्यकतानसार जीवोंके प्रयत्नपूर्वक भी होता है। जैसे रेलगाडीको उसकी चलनक्रियामें प्रेरक निमित्तभूत इंजनका और उदासीन निमित्तभूत रेलपटरीका जो सहयोग प्राप्त होता है वह जीवोंके प्रयत्नपूर्वक ही होता है। यद्यपि कार्तिकेयानुपेक्षाकी गाथा-३२१-२२, पद्मपुराण सर्ग-११० के श्लोक-४० और अन्य आगमवचनोंसे भी यह ज्ञात होता है कि पदार्थों में जो परिणमन होते है वे केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञानमें जैसे प्रतिभासित होते हैं वैसे ही होते हैं, परन्तु इस कथनका यह आशय नहीं ग्रहण करना चाहिए कि उन परिणमनोंकी उत्पत्तिमें केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञानमें होनेवाला वह प्रतिभासन कारण होता है, क्योंकि केवलज्ञानी जीव कार्य-कारणभावके आधारपर उत्पन्न हुई, उत्पन्न हो रही और आगे उत्पन्न होने वाली पर्यायोंको ही जानते हैं। अतएव केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञान में होनेवाले प्रतिभासनके अनुसार उन पर्यायोंकी उत्पत्ति स्वीकार करना गलत है। फलतः प्रकृत विषयमें दोनों पक्षोंके मध्य जो मतभेद है वह इस बातका है कि जहाँ उत्तरपक्ष पदार्थों के सभी परिणमनोंकी उत्पत्तिमें केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञानकी विषयताके आधारपर क्रमबद्धता अर्थात नियतक्रमता स्वीकार करता है वहाँ पूर्वपक्ष उन परिणकनोंकी उत्पत्तिमें श्रुतज्ञानसे ज्ञात कार्यकारणभावके आधारपर यथासम्भव क्रमबद्धता अर्थात् नियतक्रमता और अक्रमबद्धता अर्थात् अनियतक्रमता दोनों ही बातोंको स्वीकार करता है। अर्थात् पूर्वपक्षकी मान्यता है कि स्वप्रत्यय परिणमन तो प्रेरक और उदासीन निमित्तोंके सहयोगके बिना उपादानकारणजन्य होनेसे क्रमबद्ध ही होते हैं तथा स्व-परप्रत्यय परिणमन प्रेरक और उदासीन निमित्तोंके सहयोगपूर्वक उपादानकारणजन्य होनेसे प्रेरक और उदासीन निमित्तोंकी प्राप्तिके अनुसार क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध उभयरूप होते हैं। पदार्थों के परिणमनोंकी उत्पत्तिके विषयमें दोनों पक्षोंकी परस्परविरोधी इन मान्यताओं में से कौन मान्यता युक्त और कौन मान्यता अयुक्त है, इसका निर्णय किया जाता है १. यद्यपि कार्तिकेयानुप्रक्षाको गाथा-३२१-२२, पद्मपुराण सर्ग-११० के इलोक-४० एवं अन्य आगमवचनोंके आधारपर पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष दोनों ही पदार्थोके परिणमनोंके विषयमें यह स्वीकार करते हैं कि वे परिणमन जैसे केवलज्ञानी जीवके केवलज्ञान में प्रतिभासित होते हैं वैसे ही होते हैं। पर ध्यान रहे कि केवलज्ञानी जोवके केवलज्ञान में होनेवाला पदार्थोंके स्वप्रत्यय और स्व-परप्रत्यय परिणमनोंका वह प्रतिभासन उनको उत्पत्तिका नियामक नहीं होता है, क्योंकि वास्तविकता यह है कि पदार्थोंके स्वप्रत्यय और स्व-परप्रत्यय परिणमन स्वकीय कार्य-कारणभावके आधारपर जिस रूपमें उत्पन्न हुए, उत्पन्न हो रहे हैं और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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