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________________ ३/ धर्म और सिद्धान्त : १५३ उस मतिज्ञानसे नहीं होता, तथा कर्णेन्द्रियसे उत्पन्न हुए श्रावण-मतिज्ञानसे घटशब्दका ज्ञान तो होता है. परन्तु घटशब्दका अर्थ घटरूप पदार्थ है, यह विश्लेषण उस मतिज्ञानसे नहीं होता । यही स्थिति अन्य इंद्रियोंसे उत्पन्न होनेवाले मतिज्ञानकी एवं अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञानकी जान लेना चाहिए। इसमें हेतु यह है कि मति आदि उक्त चारों ज्ञानों द्वारा प्रतिभासित पदार्थोंका विश्लेषण वितर्कात्मक ज्ञान द्वारा ही हो सकता है। जबकि वे चारों ज्ञान वितर्कात्मक नहीं होते। यतः श्रुनज्ञान वितर्कात्मक होता है, अतः मति आदि उक्त ज्ञानों द्वारा प्रतिभासित पदार्थोंका विश्लेषण श्रुतज्ञान द्वारा ही हो सकता है। यतः मतिज्ञानो, अवधिज्ञानो और मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें श्रुतज्ञानका सद्भाव नियमसे रहता है, अतः मतिज्ञानी, अवविज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीव इन ज्ञानोंसे प्रतिभामित पदार्थोंका श्रुतज्ञानके आधारपर विश्लेषण भी करते हैं पर जो केवलज्ञानी जीव हैं उनमें केवलज्ञानके साथ यतः श्रुतज्ञानका सद्भाव नहीं रहता है, अतः केवलज्ञानी जीव द्वारा केवलज्ञानमे प्रतिभासित पदार्थोंका विश्लेषण किया जाना सम्भव नहीं है। इतना अवश्य है कि केवलज्ञानी तीर्थंकर जीवकी भव्य जीवोंके भाग्य और वचनयोगके बलसे जो निरक्षरी दिव्यध्वनि खिरती है उसके अर्थको गणधर अपनी अतिशयपूर्ण श्रुतज्ञानशक्तिके आधारपर ग्रहणकर उस आधारसे अक्षरात्मक श्रतका निर्माण करते हैं, तथा इस अक्षरात्मक श्रुतका अध्ययन करके अन्य विशेष श्रुतज्ञान शक्तिके धारक महापुरुष भी ग्रन्थोंका निर्माण करते हैं । वर्तमानमें भी तीर्थंकर महावीरने केवलज्ञान द्वारा विश्वके सभी पदार्थोंको और उनकी कालिक समस्त पर्यायोंको युगपत् एक समयमें जब क्रमबद्ध जान लिया तब भव्यजीवोंके भाग्य और वचनयोगके बलसे उनकी निरक्षरी दिव्यध्वनि खिरी. जिसके अर्थको गोतमगणधरने अपनी अतिशयपूर्ण श्रुतशक्तिके बलसे ग्रहण किया और उन्होंने अक्षरात्मक श्रुतको रचना की। उसी प्रकार अपनी श्रुतज्ञानशक्तिके बलसे उसका अध्ययन करके अन्य आचार्योंने भो ग्रन्थोंका निर्माण किया। इस तरह यह श्रुत-परम्परा आजतक चल रही है। इस विवेचनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि कार्य-कारणभावका विश्लेषण वितर्कात्मक श्रतज्ञान द्वारा हो होता है। मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान द्वारा नहीं, क्योंकि इन ज्ञानोंमें वितर्कात्मकताका अभाव है। जीवमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनोंका एक साथ सद्भाव रहता, है तथा किसी-किसी जीवमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञानके साथ अवधिज्ञानका या मनःपयर्ययज्ञानका अथवा अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान दोनोंका सदभाव भी आगम द्वारा स्वीकार किया गया है, किन्तु जीवमें जब केवलज्ञानका विकास हो जाता है तब उसमें पहलेसे यथायोग्यरूपमें विद्यमान मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानका अभाव हो जाता हैं, क्योंकि आगमें क्षायिक केवलज्ञानका जो स्वरूप निर्धारित किया गया है उससे ज्ञात होता है कि क्षायिक केवलज्ञानके साथ जीवमें मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानका सद्भाव सम्भव नहीं है, क्योंकि वे क्षायोपशमिक हैं। तथा केवलज्ञानका विकास जीवमें समस्त ज्ञानावरणकर्मका क्षय होनेपर ही होता है, केवलज्ञानावरणकर्मका क्षय होनेपर नहीं होता। इसप्रकार मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानके साथ श्रुतज्ञानका सद्भाव होनेसे मतिज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीव तो श्रुतज्ञानके बलसे कार्य-कारणभावका विश्लेषण करते है, परन्तु केवलज्ञानके साथ श्रुतज्ञानका अभाव निश्चित हो जानेसे केवलज्ञानी जीव कार्यकारणभावका विश्लेषण नहीं २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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