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________________ १५२ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ उत्तरपक्ष स्वपरप्रत्ययपर्यायकी उत्पत्तिको क्रमबद्ध अर्थात नियतक्रमसे सिद्ध करनेके लिए समयसार गाथा ३०८-११ को आत्मख्याति-टोकाके 'क्रमनियमित' शब्दका यह आशय ग्रहण करता है कि "क्रम अर्थात् क्रमसे (नम्बरबार) नियमित अर्थात् निश्चित । जिस समय जो पर्याय आनेवाली हो वही आयेगी, उसमें फेरबदल नहीं हो सकता।" सो यह उसकी भ्रमबुद्धि है, क्योंकि उस टीकामें प्रयवत 'क्रमनियमित' शब्दका क्रममें नियमित अर्थात् बद्ध अर्थ ही ग्राह्य है, जिसका अभिप्राय है कि एकजातीय स्व-परप्रत्यय पर्याय एकके पश्चात् एकरूप क्रमसे ही उत्पन्न होती हैं । एकजातीय दो आदि अनेक पर्याय यगपत (एकसाथ) एकसमयमें कदापि उत्पन्न नहीं होतीं। फलतः उक्त 'क्रमनियमित' शब्दका उत्तरपक्ष द्वारा स्वीकृत उपयुक्त अर्थ युक्त न होकर पूर्वपक्ष द्वारा स्वीकृत क्रममें अर्थात् एकके पश्चात् एकरूप क्रममें नियमित अर्थात् बद्ध अर्थ ही युक्त है। यद्यपि त्रैकालिक स्व-परप्रत्यय पर्यायें केवलज्ञानमें एकसाथ एकसमयमें क्रमबद्ध ही प्रतिभासित होती हैं, परन्तु उसके आधारसे उन पर्यायोंकी उत्पत्तिको क्रमबद्ध स्वीकार करना युक्त नहीं है, क्योंकि उन त्रैकालिक पर्यायोंका केवलज्ञानमें युगपत् (एकसाथ) प्रत्येक समयमें क्रमबद्ध प्रतिभासित होना अन्य बात है और उनका उपादान और प्रेरक तथा उदासीन निमित्त कारणोंके बलसे यथासंभव क्रमबद्ध या अक्रमबद्ध रूपमें उत्पन्न होना अन्य बात है। अर्थात् केवलज्ञानी जीव क्रम अथवा अक्रमसे उत्पन्न हुई, उत्पन्न हो रही और आगे उत्पन्न होनेवाली पर्यायोंको क्रमबद्धरूपमें जानता है। फलतः स्व-परप्रत्यय पर्यायोंके विषयमें यदि उत्पत्तिकी अपेक्षा विचार किया जाये तो यही कहा जा सकता है कि उनकी उत्पत्ति प्रेरक और उदासीन निमित्तकारणसापेक्ष होनेसे क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध उभयरूप सिद्ध होती है तथा ज्ञप्तिकी अपेक्षा विचार किया जाये तो कहा जा सकता है कि उनका प्रतिभासन केवलज्ञानमें युगपत् (एकसाथ) एक समयमें क्रमबद्ध ही होता है। __ स्व-परप्रत्यय पर्यायोंके विषयमें उत्पत्ति और ज्ञप्तिका यह अन्तर उत्तरपक्षके प्रमुख प्रतिनिधि पंडित फूलचन्द्रजी सिद्धान्ताचार्यने जैन-तत्व-मीमांसा (प्रथम संस्करण) पृष्ठ-२९१ पर इस प्रकार प्रकट किया है "यद्यपि हम मानते हैं कि केवलज्ञानको सब द्रव्यों और उनकी सब पर्यायोंको जाननेवाला मानकर भी क्रमबद्ध पर्यायोंकी सिद्धि मात्र केवलज्ञानके आलम्बनसे न करके कार्यकारणपरम्पराको ध्यानमें रखकर ही की जाना चाहिए।" इस प्रकार कार्य-कारणभावके आधारपर होनेवाली स्व-परप्रत्यथ पर्यायोंकी उत्पत्तिको क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध तथा केवलज्ञानमें होनेवाली उनकी ज्ञप्तिको मात्र क्रमबद्ध मान्य करने में पूर्वपक्षके समान उत्तरपक्षको भी कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि केवलज्ञानमें ही नहीं, मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञानमें भी अमुक कार्य अमुक कारणोंसे अमुक देशमें अमुक कालमें अमुकरूपसे उत्पन्न हुआ, उत्पन्न हो रहा है या उत्पन्न होगा ऐसा क्रमबद्ध प्रतिभासन यथायोग्य सीमामें होता है, परन्तु यह अवश्य ध्यातव्य है कि चाहे केवलज्ञान हो अथवा चाहे मतिज्ञान, अवधिज्ञान या मनःपर्ययज्ञान हो, ये सभी ज्ञान अपने द्वारा प्रतिभासित पदार्थोंका विश्लेषण करनेमें अक्षम ही हैं । स्पष्टीकरण निम्नप्रकार है-- नेत्रइन्द्रियसे उत्पन्न हुए चाक्षुष-मतिज्ञानसे घटका ज्ञान तो होता है परन्तु वह घट है ऐसा विश्लेषण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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