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________________ ८४ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ अनादिकालसे चली आ रही विकारी संसाररूप अवस्थाको समझना है तो इसका ज्ञान शद्धनयसे तो होगा नहीं, कारण कि वह तो वस्तुके स्वतःसिद्धस्वरूपका ही ज्ञापक होता है, जबकि आत्माको विकारी संसाररूप अवस्था उसकी स्वतःसिद्ध अवस्था न होकर कर्मोदयजन्य अवस्था है । इसलिये इसको समझानेके लिये व्यवहारनयका अवलम्बन लेना होगा, कारण कि वस्तुके पराश्रितस्वरूपका प्रतिपादक व्यवहारनय है । अथवा यों कहिये कि वस्तुके पराश्रित धर्मका प्रतिपादन करना ही व्यवहारनय है। इसके भी अतिरिक्त यदि आत्माकी संसाररूप विकारी अवस्थाको समाप्त करके उत्पन्न होनेवाली मोक्षरूप अवस्थाको समझना है तो इसका भी ज्ञान शुद्धनयसे नहीं होगा; कारण कि यह अवस्थायी आत्माकी स्वतःसिद्ध अवस्था न होकर कर्मके उपशम, क्षय और क्षयोपशमजन्य अवस्था है । इसलिये इसको समझनेके लिये भी बस्तुके पराश्रित धर्म के प्रतिपादक व्यवहारनयका अवलम्बन लेना होगा। अब प्रश्न उठता है कि आत्माको संसार और मोक्ष दोनों ही प्रकारको अवस्थायें जब क्रमशः कर्मके उदयसे जन्य और कर्मके उपशम, क्षय तथा क्षयोपशमसे जन्य हैं । यानी आत्माकी संसाररूप अवस्थामें कर्मका उदय कारण है और मोक्षरूप अवस्थामें कर्मका उपशम, क्षय और क्षयोपशम यथायोग्य साक्षात् और परंपरया कारण है तो क्या कर्मके ये उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम आत्मामें तद्रूप परिणमनकी योग्यता के अभावमें आत्माको संसारी या मुक्त बना सकते हैं ? इस विषयमें आचार्य कुन्दकुन्दका कहना है कि वस्तुमें स्वगत योग्यताके अभावमें अन्य कोई भी कारण उसको किसी रूप परिणमन करानेमें असमर्थ ही रहा करता है। यही कारण है कि जैनागममें आत्माकी संसाररूप अवस्थाका कारण आत्माकी स्वतःसिद्ध वैभाविकी शक्तिको तथा आत्माको मोक्षरूप अवस्थाका कारण आत्माकी स्वतः सिद्ध भव्यत्वशक्तिको भी स्वीकार किया गया है। इस तरह यह बात निर्णीत होती है कि यथायोग्य कर्मका उदय होनेपर आत्मा अपनी वैभाविकी शक्तिके आधारपर संसारी बना हुआ है और कर्मका उपशम अथवा क्षयोपशम होते हुए अन्तमें सर्वथा क्षय हो जानेपर आत्मा अपनी भव्यत्वशक्तिके आधार पर मोक्षरूप अवस्थाको भी प्राप्त कर लेगा। इससे यह निष्कर्ष निकल आता है कि आत्माके संसारमै उसको वैभाविकी शक्ति और कर्मका उदय ये दोनों कारण हैं तथा आत्माके मोक्षमें उसकी भव्यत्वशक्ति और कर्मका यथायोग्य उपशम, क्षयोपशम और क्षय कारण हैं। अब यदि संसारके दोनों कारणोंके विषयमें यह विचार किया जाय कि संसारके दोनों कारणोंमेंसे कौन किस रूपमें कारण होता है और मोक्षके दोनों कारणोंमें से कौन किस रूप में कारण होता है ? तो आत्माके संसारमें कारणभूत उसकी वैभाविकी शक्ति उसके संसारमें तथा आत्माके मोक्षमें कारणभूत उसकी भव्यत्वशक्ति उसके मोक्षमें उपादानकारण है, कारण कि ये शक्तियाँ ही व्यक्त होकर क्रमशः संसार और मोक्षरूपताको प्राप्त होती हैं । इसी प्रकार आत्माके संसारमें कारणभूत कर्मका उदय व आत्माके मोक्षमें कारणभूत कर्मका उपशम, क्षय और क्षयोपशम निमित्त कारण है। कारण कि कर्मका उदय आत्माके संसाररूपसे और कर्मका उपशम, क्षय व क्षयोपशम आत्माके मोक्षरूप से कदापि परिणत नहीं होते, केवल आत्माके उस परिमणनमें सहयोग मात्र दिया करते हैं क्योंकि कर्मके उदयका सहयोग न मिलनेपर आत्माकी वैभाविकी शक्ति संसाररूप परिणत नहीं हो सकती है और कर्मके उपशम, क्षय और क्षयोपशमका सहयोग न मिलनेपर आत्माको भव्यत्वशक्ति भी मोक्षरूप परिणत नहीं हो सकती है। इस तरह उपयुक्त निमित्त और उपादान दोनों कारणोंमेंसे उपादानकारणको तो स्वाश्रयताके आधार पर निश्चयकारण कहना योग्य है और निमित्तकारणको पराश्रयताके आधारपर व्यवहारकारण कहना योग्य है । यह सब विषय पूर्वमें विस्तारपूर्वक स्पष्ट किया जा चुका है। अब यदि इन दोनों ही कारणताओंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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