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________________ ३./ धर्म और सिद्धान्त : ८३ प्रतिपाद्य-प्रतिपादक सम्बन्ध रहता है और ज्ञानरूप प्रमाणश्रुत और नयश्रुतका पदार्थके साथ ज्ञाप्य-ज्ञापक भावरूप सम्बन्ध पाया जाता है । अर्थात् वचनरूप प्रमाणश्रुत और नयश्रुत क्रमशः वस्तु और वस्तुके अंशोंके प्रतिपादक होते हैं तथा वस्तु और वस्तुके अंश क्रमशः उनके प्रतिपाद्य होते हैं । इसी प्रकार ज्ञानरूप प्रमाणश्रुत और नयश्रुत क्रमशः वस्तु और वस्तुके अंशोंके ज्ञापक होते है तथा वस्तु और वस्तुके अंश क्रमशः उनके ज्ञाप्य होते हैं। इस प्रकार पूर्व में जितना चरणानुयोग आदिकी दृष्टिसे निश्चय और व्यवहाररूप अर्थोंका व्याख्यान किया गया है उसमें जितना निश्चयरूप अर्थ है उसका उसी रूपमें प्रतिपादन करने वाला वचनरूप निश्चयनय होता है और उसका उसी रूपमें बोध करने वाला ज्ञानरूप निश्चयनय होता है। इसी प्रकार उसमें जितना व्यवहाररूप अर्थ है उसका उसी रूपमें प्रतिपादन करनेवाला वचनरूप व्यवहारनय होता है और उसका उसी रूपमें बोध करानेवाला ज्ञानरूप व्यवहारनय होता है। इस बातको लक्ष्यमें रखकर ही सर्वत्र हमें वस्तुतत्त्वका निर्णय करनेका प्रयत्न करना चाहिये । इसका तात्पर्य यह है कि जब ऐसा आगममें बतलाया गया है कि मोक्षमार्ग दो प्रकारका है--एक निश्चयमोक्षमार्ग और दुसरा व्यवहारमोक्षमार्ग, तो दोनों ही मोक्षमार्गोंकी वास्तविकताको मानकर नयप्रक्रियासे इस बातका निर्णय करना चाहिये कि निश्चयमोक्षमार्ग तो मोक्षका साक्षात् कारण होता है और व्यवहारमोक्षमार्ग परम्यरया कारण होता है, जैसा कि पूर्व में प्रतिपादित किया गया है। इस तरह मोक्षमार्गकी स्वतंत्र-स्वतंत्र दो भेदरूपताके प्रसंगके भयसे जिनको व्यवहारमोक्षमार्गको अकिंचित्कर माननेका सहारा लेना पड़ता है उन्हें उस सहारेकी फिर आवश्यकता नहीं लेनी पड़ेगी। इसी प्रकार आत्माकी परिणतिको औदयिक, औपशमिक, क्षायिक या क्षायोपशमिक नामसे पुकारा जाता है, तो नयात्मक दृष्टिकोण रहनेसे इसका अर्थ यही होता है कि आत्माको उक्त, औदयिकादि परिणतियोंमें कर्मकी उदयादि परिणितियाँ निमित्तकारण हुआ करती है। यदि कर्मकी उदयादि परिणतियाँ आत्माकी औदयिकादि परिणतियोंकी उत्पत्तिमें निमित्तकारण नहीं होने पर उन्हें आत्माकी औदयिकादि परिणतियोंमें निमित्तकारण कहा जाता है तो फिर यह कथन तो असत्य ही हो सकता है। इसको व्यवहारनयका कथन किसी भी हालतमें नहीं कहा जा सकता है। इसे व्यवहार नय तभी कहा जा सकता है जबकि कर्मको उदयादिक परिणतियोंमें आत्माकी औदयिकादि परिणतियोंकी निमित्तकारणताका सद्भाव माना जायगा और उपादानकारण ही कार्यरूप परिणत होता है निमित्त कारण नहीं, क्योंकि उपादानकारणका कार्य ही कार्यरूप परिणत होना है, निमित्त कारणका कार्य तो उपादानको कार्यरूप परिणत होनेमें केवल सहायता देनेका ही रहता है । इसलिये किसीको ऐसा भय करनेकी आवश्यकता नहीं कि 'यदि कार्य में निमित्तकारणकी निमित्तकारणताको वास्तविक मान लिया जाता है तो निमित्तकारण ही कार्य बन जायेगा।" इसी प्रकार सर्वत्र समझ लेना चाहिये। आचार्य कुन्दकुन्दने 'समयसार' ग्रन्थमें आत्माको स्वतन्त्र और अनादि-निधन वस्तु सिद्ध करनेके लिये सर्वप्रथम उसके स्वतःसिद्ध ज्ञायकस्वभावका प्रतिपादन किया है। लेकिन जब आत्मा अनादिकालसे अपने उक्त स्वभावमें स्थिर न रहकर विकारी बन रहा है तो इसके लिये उन्होंने आत्माकी पदगलकर्मके साथ बद्धताको भी स्वीकार किया है। अर्थात् जिस प्रकार आत्माके स्वभाव ज्ञायकभावको आचार्य कुन्दकुन्द स्वतःसिद्ध मानते हैं उस प्रकार वे आत्माके विकारको स्वतःसिद्ध नहीं मानते हैं। इस बातको बतलानेके लिये सर्वप्रथम उन्होंने शुद्धनय और व्यवहारनयका आश्रय लिया है। इससे आचार्य कुन्दकुन्द यह दिखलाना चाहते हैं कि यदि आत्माको स्वतन्त्र और अनादि-निधन वस्तुके रूपमें जानना है तो आत्माके स्वतःसिद्धस्वरूपको बतलानेवाले शुद्धनयका अवलम्बन लेना होगा, कारण कि वस्तुके स्वतःसिद्धस्वरूपका प्रतिपादक शुद्धनय है अथवा यों कहिये कि वस्तुके स्वतःसिद्धस्वरूपका प्रतिपादन करना ही शुद्धनय है । इसी तरह यदि आत्माकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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