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________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : ८५ प्रतिपादन करने या बोध करने की दृष्टिसे विचार किया जाय, तो कहा जा सकता है कि उपादानकारणता रूप निश्चयकारणता प्रतिपाद्य-प्रतिपादकभावके आधारपर निश्चयनयरूप वचनका तथा ज्ञाप्य-ज्ञापक भावके आधारपर निश्चयनयरूप ज्ञानका विषय होती है और निमित्तकारणतारूप व्यवहारकारणता प्रतिपाद्यप्रतिपादकभावके आधारपर व्यवहारनयरूप वचनका तथा ज्ञाप्य-ज्ञापकभावके आधारपर व्यवहारनयरूप ज्ञानका विषय होती है। इस तरह आचार्य कुन्दकुन्दने समयसारमें शुद्धनय और व्यवहारनयके विकल्पोंके समान निश्चयनय और व्यवहारनयके विकल्पोंका भी समावेश किया है। आगममें निश्चयनयके भी शुद्धनिश्चयनय और अशुद्ध निश्चयनय इस तरह दो भेद कर दिये गये हैं। इनमेंसे आत्माका विकाररहित शुद्ध स्वरूप स्वाश्रितपनेकी दृष्टिसे शुद्धनिश्चयनयका विषय होता है और आत्माका विकारी अशद्ध स्वरूप भी स्वाश्रितपनेकी दष्टिसे अशुद्धनिचयनयका विषय होता है। आत्माके इसी स्वरूपको यदि पराथितपने की दृष्टिसे देखा जाय, तो फिर यह व्यवहारनयका विषय हो जाता है। व्यवहारनयके भी आगममें दो भेद किये गये है--एक सद्भुत व्यवहारनय और दूसरा असद्भूतव्यवहारनय । सद्भूतव्यवहारनय भी दो प्रकार का है--एक अनुपचरितसद्भूतव्यवहारनय और दूसरा उपचरितसद्भुतव्यवहारनय । इसी प्रकार असद्भतव्यवहारनय भी दो प्रकारका है--एक अनुपचरितअसद्भूतव्यवहारनय और दूसरा अचरित असदभत व्यवहारनय। इस विषयको आलापपद्धतिमें निम्न प्रकार निबद्ध किया गया है "तावन्मूलनयौ द्वौ निश्चयो व्यवहारश्च । तत्र निश्चयोऽभेदविषयो व्यवहारो भेदविषयः । तत्र निश्चयो द्विविधः-शुद्धनिश्चयोऽशुद्धनिश् चयश्च । तत्र निरुपाधिकगुणगुण्यभेदविषयकः शुद्धनिश्चयो, यथा केवलज्ञानादयो जीवः । सोपाधिक (गुणगुण्यभेद) विषयोऽशुद्ध निश्चयः । यथा मतिज्ञानादयो जीवः । व्यवहारो द्विविधः सद्भतव्यवहारोऽसद्भतव्यवहारश्च । तत्रैकवस्तुविषयः सद्भूतव्यवहारः, भिन्नवस्तुविषयोऽसद्भूतव्यवहारः । तत्र सद्भूतव्यवहारो द्विविधः उपचरितानुपचरितभेदात् । तत्र सोपाधिगणगणिनो दविषयःउपचरित सदभतव्यवहारो, यथा जीवस्य मतिज्ञानादयो गुणाः । निरुपाधिगुणगुणिनोर्भेदविषयानुपचरितसद्भुतव्यवहारो, यथा जीवस्य केवलज्ञानादयो गुणाः । असद्भुतव्यवहारो द्विविधः-उपचरितानुपचरितभेदात् । तत्र संश्लेषरहितवस्तुसम्बन्धविषय उपचरितासद्भूतव्यवहारो, यथा देवदत्तस्य धनम् । संश्लेषसहि तवस्तुसम्बन्धविषयोऽनुपचरि तासद्भतव्यवहारो, यथा जीवस्य शरीरम् ।" इसका अर्थ ऊपर स्पष्ट है । इस तरह नयोंके स्वरूपको यथावत् प्रकार समझनेको अत्यन्त आवश्यकता है, कारण कि संपूर्ण वस्तुतत्त्वको समझनेका साधन अल्पज्ञ प्राणियोंके लिये नय-व्यवस्था ही है। इस नय-व्यवस्थाको लौकिक दृष्टान्त द्वारा इस तरह समझा जा सकता है कि "कुम्भकारने दण्ड और चक्रके सहयोगसे मिट्टीसे घड़ा बनाया" ऐसा वाक्य यदि बोला जाता है तो इसका अभिप्राय निम्न प्रकार होता है यह संपूर्ण वाक्य वक्ताके संपूर्ण अर्थका यदि निराकांक्षरूपसे बोधक है, तो इसे अपने वर्तमान रूपमें प्रमाणवचन और इससे होने वाले बोधको प्रमाणज्ञान ही कहा जायगा। इस वाक्यके संपूर्ण अर्थमें इतने अर्थ गभित हैं अभेददृष्टिसे मिट्टी और घटमें जो अभेदका बोध होता है यह निश्चयनय है, कार्यकारण-भावकी दृष्टिसे जो भेदका बोध होता है यह सद्भतव्यवहारनय है, मिट्रीकी घटरूप परिणतिरूप उत्पाद में मिट्टी में जो उपादान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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