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________________ 2 अचौर्याणुव्रती को निम्नांकित दोषों से बचना चाहिए - तत्वार्थ- ब्रह्मचर्याणुव्रती को निम्न अतिचारों / दोषों का सेवन नहीं करना सूत्रानुसार स्तेनप्रयोगतदाहदतादानविरुद्ध राज्याति- चाहिए - क्रमहीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपक व्यवहाराः।११ परस्त्री, कुमारी, वेश्या के साथ समागम करना, हस्तमैथुन करना, भावार्थ यह है कि चोरी की गयी वस्तु का क्रय करना, चोरों समलिंगी या पशु से मैथुन करना, स्वसन्तान तथा परिजनों के अतिरिक्त को चोरी करने में सहयोग देना, राजकीय नियमों के विरुद्ध कार्य परविवाह सम्बन्ध करना, तीव्र कामभोग की इच्छा करना या मादक करना, मापतौल में बेईमानी करना, वस्तुओं में मिलावट करना - इन पदार्थों का सेवन करना - इन दोषों से ब्रह्मचर्याणुव्रती गृहस्थ को परे पाँच चौर्य-दूषणों से बचना अचौर्याणुव्रत है। सावयपण्णति में भी रहना चाहिए। उक्त तथ्य का उल्लेख शास्त्रों में संक्षेप में इस प्रकार लगभग यही निर्देश मिलता है - मिलता है :वज्जिज्जा तेना हड, तक्कर जोगं विरुद्धरज्जं च । इत्तरिय परिग्गहिया परिगहियागमणाणं गकीडं च ।। कूड तुल कूडमाणं, तप्प डि रूप च ववहारं ॥ पर विवाहक्करणे, कामे तिव्वाभिलासं च ॥१ अदत्तादान - विरमणव्रत का सुफल बताते हुए कहा गया है परविवाहकरणेत्वरपरिगृहीता परिगृहीतागमना कि शुद्ध चित्त से जिन पुरुषों ने पराये धन को ग्रहण करना त्याग कि नङ क्रीडातीव्रकामाभिनिवेशाः ॥२२ दिया है, उनके सामने स्वयं लक्ष्मी स्वयंवरा की भांति चली आती ५. परिग्रह - परिमाणाणवत सी हैं। उनके समस्त अनर्थ दूर हो जाते हैं। सर्वत्र उनकी प्रशंसा होती इसे अपरिग्रहाणुव्रत भी कहा गया है। इसके अन्तर्गत श्रावक है और उन्हें स्वर्गिक सुख प्राप्त होते हैं: को अपने संग्रह या परिग्रह की एक सीमा निर्धारित करनी होती है। परार्थग्रहणे येषां, नियमः शुद्धचेतसाम् । अधिक परिग्रह अधिक इच्छा/तृष्णा का कारण है। मूर्छा आसक्ति अभ्यायान्ति श्रियस्तेषां, स्वयमेव स्वयंवराः ॥ इच्छाओं की बढ़ोतरी को रोकने के लिए एवं सन्तोष धारण करने के अनर्था दूरतो यान्ति, साधुवादः प्रवर्तते । लिए ही इस व्रत का विधान है। इसीलिए इसे इच्छा-परिमाण-व्रत स्वर्गसौख्यानि ढौकन्ते, स्फुटमस्तेयचारिणाम् ॥१८ भी कहा गया है। उपदेशमाला में लिखा है कि अपरिमित परिग्रह ब्रह्मचर्याणुव्रत अनन्त तृष्णा का कारण है। वह बहुत दोषयुक्त है तथा नरकगति का स्वपत्नी में ही सन्तोष करना तथा काम-सेवन की मर्यादा बांधना मार्ग है। ब्रह्मचर्याणुव्रत है। इसीलिए इसे स्वदार सन्तोषव्रत भी कहा जाता है। विरया परिग्गहाओं अपरिमिआओ अणंत तण्हाओ। यद्यपि कुछ आचार्यों के अनुसार यह व्रत दो प्रकार का है - बहु दोसंकुलाओ, नरयगइगमण पंथाओं । २३ १. स्वस्त्री-सन्तोषव्रत तथा परस्त्री त्यागवत। "भक्त-परीक्षा" ग्रन्थानुसार जीव परिग्रह के निमित्त हिंसा करता इनमें प्रथम व्रत का पालन करने वाला श्रावक अपनी पत्नी के है, असत्य बोलता है, चोरी करता है, मैथुन का सेवन करता है, अतिरिक्त अन्य सभी स्त्रियों के साथ भोग करने का परित्याग करता और अत्यधिक मूर्छा करता है। इस प्रकार परिग्रह पांचों पापों की है। जबकि परस्त्री, त्यागवती श्रावक दूसरों की विवाहित स्त्रियों का जड़ है - ही त्याग करता है। इसलिए यह कहना अधिक युक्तिसंगत है कि संगनिमितं मारईं, भणइ अलीणं करेइ चोरिक्कं । श्रावक स्वस्त्री - सन्तोषी बनकर परस्त्री गमनका त्याग करें। इस व्रत या सेवई मेहुणं मुच्छं, अप्परिमाणं कुणई जीवों । का विधान व्यक्ति की काम वासना को सीमिततर करने के लिए है। हेमचन्द्राचार्य ने भी परिग्रह के दोष बताए है। उनके आचार्य हेमचन्द्र ने परस्त्रीगमन का कुफल बताते हुए कहा है कि अभिवचनानुसार जो राग-द्वेषादि दोष उदय में नहीं होते, वे भी परिग्रह अपने प्रचण्ड पराक्रम से अखिल विश्व को आक्रान्त कर देनेवाला की बदौलत प्रकट हो जाते हैं। जनसाधारण की तो बात ही क्या है, रावण भी, परस्त्री-रमण की इच्छा के कारण अपने कुल का विनाश परिग्रह के प्रलोभन से मुनियों का चित्त भी चलायमान हो जाता है। करके नरक गया - उन्होंने परिग्रह को हिंसा का मूल बताते हुए यह भी कहा है कि विक्रमाक्रान्तविश्वोऽपि, परस्त्रीष रिरंसया । जीवहिंसा आदि आरम्भ जन्म-मरण के मूल हैं और उन आरम्भों का कृत्वा कुलक्षयं प्राप, नरकं दशकन्धरः ॥१९ कारण परिग्रह है। अर्थात परिग्रह के लिए ही आरम्भसमारम्भ किये जिस प्रकार से परस्त्रीगमन त्याज्य है, वैसे ही पर-पुरुष सेवन जाते हैं। अतः श्रावक को चाहिए कि वह परिग्रह को क्रमश: घटाता भी त्याज्य है। योगशास्त्र में लिखा है - जाए। द्रष्टव्य है उनके स्वयं के पद - ऐश्वर्यराजराजोपि, रूपमीनध्वजोपि च ।। सद्भवन्त्यसन्तोपि, राग-द्वेषोदये द्विषं । सीतया रावण इव, त्याज्यो नार्या नरः परः ॥२० मुनेरपि चलेच्चेतो, यत्तेनान्दोलितात्मनः ॥ अर्थात, ऐश्वर्य से कुबेर के समान, रूप से कामदेव के समान, संसारमूलमारम्भास्तं हेतुः परिग्रहः । सुन्दर होने पर भी स्त्री को परपुरुष का उसी प्रकार त्याग कर देना तस्मादुपासकः कुर्यादल्पमल्प परिग्रहम् ॥ चाहिए, जैसे सीता ने रावण का त्याग किया था। परिग्रह से मनुष्यों की तृप्ति अशक्य है। यह सर्व प्रसिद्ध है। श्रीमद् जयंतसेन सूरि अभिनंदन मंथ/वाचना इच्छाओं का जगत में, कभी न होता अन्त । जयन्तसेन अनादि से, कहते ज्ञानी सन्त ॥ www.jainelibrary.org: Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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