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________________ PINणात कारण दूर-दूर देशों में अधिकाधिक व्यापार करने के लिये जाने से रुक जाता है और परिणामस्वरूप लोभ पर अकुंश लग जाता है। हेमचन्द्राचार्य के शब्दों में - जगदाक्रममाणस्य, प्रसरल्लोभवारिधेः ।। स्खलनं विदधे तेनं. येन दिग्विरतिः कृता ॥२२ सामायिक पाठ में कहा गया है कि व्यवसाय क्षेत्र को सीमित करने के आशय से उर्ध्वदिशा, अधोदिशा, तथा तिर्यकदिशा में गमना-गमन की सीमा बांधना प्रथम गुणव्रत हैं। उड्ढ महे तिरियं पि य, दिसा नु परिमाणकरमणमिह पढमं । भणियं गुणव्वयं खलुं, सावग धम्मम्मि वीरेण १२५ तत्त्वार्थ सूत्र में लिखा है कि उर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिकम क्षेत्रवृद्धि कि द्वितीय चक्रवर्ती सगर साठ हजार पुत्र पाकर भी सन्तोष न पा सका। कुचिकर्ण बहुत से गोधन से तृप्ति का अनुभव न कर सका। तिलक श्रेष्ठी धान्य से तृप्त नहीं हुआ और नन्द नामक नृपति स्वर्ण के ढेरों से भी सन्तोष नहीं पा सका। सचमुच, जैसे ईंधन बढ़ाते जाने से अग्नि शांत नहीं होती, उसी प्रकार परिग्रह से लोगों की तृप्ति नहीं होती। जब कि जिस व्यक्ति का भूषण सन्तोष बन जाता है. समृद्धि उसी के पास रहती है, उसी के पीछे कामधेनु चलती है और देवता दास की तरह उसकी आज्ञा मानते हैं। योगशास्त्र इसी का समर्थन करता हुआ कहता है :सन्निधौ निधयस्तस्य कामगव्यनुगामिनी । अमराः किंकरायन्ते, संतोषो यस्य भूषणम् ॥२५ परिग्रह - परिमाण - अणुव्रती विशुद्ध चित्त श्रावक को क्षेत्र मकान, सोना-चादी, धन-धान्य, द्विपद-चतुष्पद तथा भण्डार-संग्रह आदि परिग्रह के अंगीकृत परिमाण का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। खिताई हिरण्णाई, धणाइ दुपयाई-कुवियगस्स तहा । सम्म विसुद्धचितो, न पमाणमाइक्कम कुज्जा ॥ भगवती आराधना में निम्न दस परिग्रह बताये हैं - खेत, मकान, धन-धान्य, वस्त्र भाण्ड, दास-दासी, पशुयान, शय्या और आसन। श्रावक इनकी सीमारेखा निर्धारित करता है। तत्वार्थसूत्र में भी लगभग इन्हीं का पिष्टपेषण है : क्षेत्रपास्तुहिरण्यसुवर्णधन-धान्यदासी दासकुप्यप्रमाणितिक्रमाः।२९ गुणवत श्रावक के अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पांच अणुव्रतों के गुणों में अभिवृद्धि करने वाले दिक् देश तथा अनर्थदण्ड नामक तीन व्रतों को गुणव्रत कहते हैं। “आतुर प्रत्याख्यान" में इन्हीं तीन गुणव्रतों का उल्लेख किया गया है - जं च दिसावेरमणं, अणत्थदंडाउ जं च वेरमणं । देसावगासिंयं पि य, गुणव्वयाईं भवे ताई ॥ अर्थात श्रावक के तीन गुणवत होते हैं: दिविरति, अनर्थदण्ड विरति तथा देशावकाशिक। तत्वार्थ सूत्र में भी यही नाम एवं क्रम दिया गया है।२१ किन्तु योगशास्त्र में कुछ भिन्नता है। उसके अनुसार दिग्वत, भोगोपभोग व्रत और अनर्थदण्ड व्रत - ये तीन गुणव्रत हैं। दिग्व्रत के साथ देशावकासिक व्रत का सीधा सम्बन्ध है। अत: हम गुणवतों में भोगोपभोग व्रत को स्वीकार न करके दिगवत को ही स्वीकार कर दिग्वत के पांच अतिचार इस प्रकार हैं १. विभिन्न दिशाओं में जाने की, की हुई मर्यादा को भूल जाना, २-४ ऊर्ध्वदिशा, अधोदिशा और तिर्यग् तिरछी दिशा में भूल से, परिमाण से आगे चला जाना और क्षेत्र की वृद्धि करना अर्थात एक दिशा के परिमाण को घटाकर दूसरी दिशा का बढ़ा लेना जिससे परिमाण से आगे जाने का काम पड़ने पर आगे भी जा सके - स्मृत्यन्तमुधिस्तिर्यग्भागब्यतिक्रमः । क्षेत्रवृद्धिश्च पति स्मृता दिग्विरतिव्रते ॥ देशव्रत या देशावकासिक व्रत र इच्छाओं को सीमित करने के लिये इस व्रत का विधान है। देश-देशान्तर में गमनागमन से व्यापार संबंधी दिशा मर्यादा व्रत में या जिस देश में जाने से परिगृहीत व्रत के भंग होने का भय हो वहाँ जाने का त्याग करना ही देशावकासिक व्रत है। योगशास्त्रानुसार :दिग्वते परिमाणं, यत्तस्य संक्षेपणं पुनः । दिने रात्रौ च देशावकासिक - व्रतमुच्यते ॥३॥ मा अर्थात दिग्व्रत में गमनामगन के लिये जो परिमाण नियत किया गया है उसे दिन तथा रात्रि में संक्षिप्त कर लेना देशावकासिक व्रत दिग्वत परिग्रह - परिणाम व्रत के रक्षार्थ व्यापार आदि के क्षेत्र को सीमित रखने में सहायक गुणव्रत को दिग्व्रत कहते हैं। इसे दिशाविरति तथा दिशापरिमाण व्रत भी कहा जाता है। जिस व्यक्ति ने दिग्व्रत अंगीकार कर लिया है, उसने जगत् पर आक्रमण करने के लिए अभिवृद्ध लोभरूपी समुद्र को आगे बढ़ने से रोक दिया है। इस व्रत को धारण करने के पश्चात् मनुष्य लोभ के वसुनन्दी श्रावकाचार में यही बात कही गयी है कि जिस देश में जाने से किसी भी व्रत का भंग होता हो या उसमें दोष लगता हो उस देश में जाने की नियमपूर्वक प्रवृत्ति देशावकासिक नामक द्वितीय गणव्रत है। वयभंगकारण होइ, जीम्म देसम्मि तत्थ णियमेण । कीरइ गमणणियत्तो, तं जाण गुणव्वयं विदियं ॥२५ इस व्रत के पाँच अतिचार है :- आनयन-प्रेष्य-प्रयोग शब्दरूपानुपात पुद्गलक्षेपाः। अर्थात् निर्धारित क्षेत्र के बाहर से वस्तु लाना या मंगवाना, निर्धारित क्षेत्र के बाहर वस्तु लाना या मंगवाना, निर्धारित क्षेत्र के बाहर वस्तु भेजना, निर्धारित क्षेत्र के बाहर आवाज देना, निर्धारित क्षेत्र के बाहर खड़े व्यक्ति को बुलाने के अभिप्राय से हाथ आँख आदि अंगों से संकेत करना और कंकड़ आदि फेंकना। श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना, २३ इच्छा पूरी कब हुई, इच्छा करो निरोध । जयन्तसेन कहाँ गया, कर्मों का अवरोध ॥ www.jainelibrary.org. Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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