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________________ है तो उसका इन्द्रिय-दमन, देवोपासना, गुरुसेवा, दान, अध्ययन और तप ये सब निष्फल हैं। कुर्णिवरं वरं पंगुरशरीरी वरं पुमान् । अपि सम्पूर्णसर्वाङ्गो, न तु हिंसापरायणाः ॥ हिंसा विघ्नाय जायेत, विघ्नशान्त्यै कृता पि हि । कुलाचारविधा प्येषा, कृता कुलविनाशिनी । दमो देव-गुरूपास्तिर्दानमध्ययनं तपः । सर्वमप्येतदफलं, हिंसा चेन्न परित्यजेत् ॥ इस अणुव्रत को स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत भी कहा जाता २. सत्वात्यमेव जयतेजान और "सत्यमेव जयते" - सत्य की विजय होती है और असत्य की पराजय। जो सत्पुरुष ज्ञान और चारित्र के कारणभूत सत्य वचन ही बोलते हैं, उनके चरणों की रज पृथ्वी को पावन बनाती है - ज्ञान-चारित्रयोर्मलं, सत्यमेव वदन्ति ये । धात्री पवित्रीक्रियते, तेषां चरणरेणुभिः । स्थूल असत्य से विरत होना सत्याणुव्रत है। मृषावाद विरमण व्रत इसी का अपर नाम है। सत्याणुव्रती गृहस्थ को कतिपय दोषों से बचने का निर्देश दिया गया है। तत्वार्थसूत्र के अनुसार सत्याणुव्रती को मिथ्या उपदेश, असत्य दोषारोपण, कूटलेखक्रिया, न्यास-अपहार और मन्त्र भेद अर्थात् गुप्त बात प्रकट करना + इन पांच अतिचारों से बचना चाहिए मिथ्योपदेश - रहस्याख्यानकूट लेखक्रियान्यासापहारसाकारमन्त्रभेदाः। “सावयपण्णति” में प्राप्त उल्लेखों के अनुसार कन्या-अलीक, गो-अलीक व भू-अलीक अर्थात् कन्या, गो (पशु) तथा भूमि के विषय में झूठ बोलना, किसी की धरोहर को दबा लेना और झूठी गवाही देना - इनका त्याग स्थूल असत्य विरति हैं। साथ ही साथ सत्य-अणुव्रती बिना सोचे-समझे न तो कोई बात करता है, न किसी का रहस्योद्घाटन करना है, न अपनी पली की कोई गुप्त बात मित्रों आदि में प्रगट करता है. न मिथ्या अहितकारी उपदेश करता है और न कूटलेख क्रिया जाली हस्ताक्षर या जाली दस्तावेज आदि करता है। मूल सूत्र ये हैं : थूल मुसावायास्स उ, विरई दुत्वं स पंचहा होई । नारी कन्नामोभू आल्लिय, नासहरणकडसविखज्जे । सहसा अब्भक्खाणं रहस्सा य सहारमंत मोयं च । मोसोवए सयं कूडलेह करणं च वज्जिजज्जा ॥१ योगशास्त्र में भी कन्यालीक आदि पूर्व संकेतित स्थूल असत्य स्थानांगसूत्रानुसार सत्याणुव्रती को असत्य वचन, तिरस्कार युक्त वचन, झिड़कते हुए वचन, कठोर वचन, अविचारपूर्ण वचन और शान्त कलह को पुन: भड़काने वाले वचन नहीं बोलने चाहिए। इमाई छ अवयणाई वदित्तए - अलियवयणे, हीलियवयणे खिसितवयणे फरसवयणे । । गारत्थियवयणे, विउसविंत वा पुणाउदीरित्तए ।१४ वस्तुतः जो वचन तथ्य होने पर भी पीड़ाकारी हो, वह भी असत्य में ही परिगणित है। हेमचन्द्राचार्य ने स्पष्ट कहा है “न सत्यमपि भाषेत, परपीड़ाकरं वचः" अर्थात् जो वचन भले ही सत्य कहलाता हो, किन्तु दूसरे को पीड़ा उत्पन्न करने वाला हो, तो वह भी नहीं बोलना चाहिए। व्यक्ति निम्न चौदह कारणों से असत्य का सेवन करता है - १. क्रोध २. अभिमान ३. कपट ४. लोभ ५. राग ६. द्वेष ७. हास्य ८. भय ९. लज्जा १०. क्रीड़ा ११. हर्ष १२. शोक १३. दाक्षिण्य तथा १४. बहुभाषण। कार श्रावकाचार का पालन करने वाला उक्त दोषों से बचने का प्रयास करे। दिक ३. अदत्तादानविरमणव्रत जिस वस्तु का जो स्वामी है, उसके द्वारा प्रदत्त वस्तु को ग्रहण करना दत्तादान है और उसके बिना दिये उसकी वस्तु को लेना अदत्तादान है। यह श्रावक का तृतीय अणुव्रत हैं। इसे अस्तेयाणुव्रत या अचौर्याणुव्रत भी कहा जाता हैं। इसके अन्तर्गत गृहस्थ को स्थूल चौर्यकर्म से विरत होना है। लोकनिन्द्य और राज्य द्वारा दंडनीय चोरी का श्रावक त्याग करता हैं। चोरी करने से व्यक्ति “चोर" कहलाता है, राजदण्ड और निन्दा पाता है, अत: चोरी/अदत्तादान श्रावक के लिए त्याज्य है। चौर्यकर्म की निन्दा करते हुए आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है कि जो पराये धन का अपहरण करता है, वह अपने इस लोक को, परलोक को, धैर्य, स्वास्थ्य और हिताहित के विवेक को, हरण करता है। दूसरे के धन को चुराने से इस लोक में निन्दा होती है, परलोक में दुःख का संवेदन करना पड़ता है, धर्म का धीरज का और सन्मति का नाश होता है। चौर्य-कर्म करने के कारण मनुष्य कहीं भी स्वस्थ - निश्चिन्त नहीं रह पाता दिन में रात में, सोते समय और जागते समय, सदा सर्वदा वह सशल्य बना रहता है। चोरी का द्विफल बताते हुए आचार्य कहते है कि चोरी से इस लोक में वध, बन्धन आदि फल प्राप्त होते हैं और परलोक में नरक की भीषण वेदना का संवेदन प्राप्त होता है। मूल सूत्र इस प्रकार है : अयं लोक: परलोको, धर्मो धैर्यधृतिर्मतिः । मुष्णता परकीयं स्वं, मुषितं सर्वमप्यदः ॥ दिवसे वा रजन्यां, वा स्वप्ने वा जागरे पि वा । सशल्य इव चौर्येण, नैति स्वास्थ्यं नरः, क्वचित् । चौर्यपाप-द्रुमस्येह, वध-बन्धादिक फलम् । जायते परलोके तु, फलं नरक - वेदना ॥१५ कहे हैं।१२ इस शास्त्र में यह भी वर्णित है कि इन पाँच स्थूल असत्यों का उपयोग क्यों वर्जित है। इसके अनुसार कन्यालीक, गो-अलीक और भूमि अलीक-लोक विरुद्ध हैं। न्यासापहार विश्वासघात का जनक है और कूटसाक्षी पुण्य का नाश करने वाली है। अत: श्रावक को स्थूल मृषावाद नहीं बोलना चाहिए। सर्वलोकविरुद्धं यद्यद्विश्वसितघातकम् । यद्विपक्षश्च पुण्यस्य, न वदेत्तदसूनृतम् ॥१२। श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन अंथ/वाचना Jain Education International पर निंदा तुम ना करो, निंदा से गुण नाश । जयन्तसेन इसे तजे, पायें आत्मप्रकाश Library.org For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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