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________________ श्रावक के द्वादश व्रत (महोपाध्याय श्रीचन्द्रप्रभसागरजी महाराज) व्रत श्रावकाचार का आधारभूत तत्व है। अनैतिक आचार से से विरत होना चाहिए। चूंकि श्रावक गृही-जीवन-यापन करता है। विरति ही व्रत है। तत्वार्थसूत्र में लिखा है कि हिंसानृतास्त्येया अत: वह हिंसा से सर्वथा अलग नहीं हो सकता। इसलिए अहिंसाणुव्रत ब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्वतम्। अर्थात हिंसा, असत्य, अचौर्य मैथुन व के परिपालन के लिए यह कहा गया है कि श्रावक स्थूल हिंसा कभी परिग्रह से विरति व्रत है। व्रत वस्तुत: वह धार्मिक कृत्य या प्रतिज्ञा न करे, सूक्ष्म हिंसा भी उससे न हो, इसका भी उसे ध्यान रखना है, जिसके पालन से व्यक्ति अशुभ से मुक्त होता है एवं शुभ तथा चाहिए। यतनाचार/विवेक पूर्वक अपने गार्हस्थ्य जीवन को बिताये। शुद्धत्व की यात्रा करता है। शास्त्र में अहिंसा - अणुव्रत पालन करने के लिए कुछेक आज्ञाएं जैनागमों में श्रावक के १२ व्रतों का वर्णन किया गया है, दी गयी हैं। - जिनका विभाजन इस प्रकार है - १. पाँच अणुव्रत, २..तीन १. क्रोध आदि कषायों से मन को दूषित करके पशु तथा मनुष्य गुणव्रत और ३. चार शिक्षा व्रत। गुणवतों और शिक्षाव्रतों को समवेत आदि का बन्धन नहीं करना चाहिए। रूप में शीलव्रत भी कहा जाता हैं। तत्वार्थसूत्र में अणुव्रतों को ही डण्डे आदि से ताड़न-पीटन नहीं करना चाहिए। श्रावक का व्रत कहा है। शीलव्रत को मूल व्रत न कहकर अणुव्रतों पशुओं के नाक आदि अंगों का छेदन नहीं करना चाहिए। के पालन में सहायक बताया गया है। जबकि श्रावकधर्म प्रज्ञप्ति में शक्ति से अधिक भार लादना नहीं चाहिए। लिखा है - खान-पान आदि जीवन-साधक वस्तुओं का निरोध नहीं करना पंचेव अणुव्वयाई गुणव्वयाई च हृति तिन्नेव। चाहिये। सिक्खावयाई चउरो, सावगधम्मो दुवालसहा। उक्त कर्म हिंसा रूप है। अत: इनका त्याग अहिंसा-अणुव्रत अर्थात श्रावक-धर्म पांच अणुव्रत तीन गुणव्रत और चार शिक्षा का पालन है। व्रत - यों बारह प्रकार का है। योगशास्त्र में भी यही वर्णित है : सावयपण्णति में इसी का उल्लेख मिलता है - बंध्वहछविच्छेए, अइभारे भूत्तपाणवुच्छेए। सम्यक्त्वमूलानि, पन्चाणुव्रतानि गुणास्यः। को हा इदूसियमणो, गोमणयाईण नो कुज्जा। शिक्षापदानि चत्वारि, व्रतानि गृहमेधिनाम्॥ तत्त्वार्थ सूत्र में भी उक्त पाचों अतिचारों का उल्लेख हुआ है। अणुव्रत पाक्षिक अतिचार सूत्र में इस तथ्य का कुछ विस्तार से विवेचन जिनेन्द्र देव ने दो करण, तीन योग, आदि से स्थूल हिंसा और हुआ है। दोषों के त्याग की अहिंसा आदि को पांच अणुव्रत कहा है - आचार्य हेमचन्द्र का अभिमत है कि पंगुपन, कोढ़ीपन और विरतिं स्थूलहिंसादेर्द्विविधत्रिविधादिना। कुणित्व आदि हिंसा के फलों को देखकर विवेकवान् पुरुष निरपराध अहिंसादीनि पन्चाणुव्रतानि जगदुर्जिनाः॥ त्रस जीवों की संकल्पी हिंसा का त्याग करे। अहिंसा-धर्म का ज्ञाता आतुरप्रत्याख्यान में अणुव्रतों के संबंध में लिखा है - और मुक्ति की अभिलाषा रखनेवाला श्रावक स्थावर जीवों की भी पाणिवहमुसावाए, अदत्तपरदारनियमणेहिं च। निरर्थक हिंसा न करे। अपरिमिइच्छाओ वि य, अणुव्वयाई विरमणांई पंगुकुष्ठिकुणित्वादि, दृष्ट्वा हिंसाफलं सुधीः । अर्थात प्राणि-वध (हिंसा), मृषावाद (असत्य वचन), अदत्त निरागस्त्रसजन्तूनांक, हिंसा संकल्पतस्त्यजेत् ॥ वस्तु का ग्रहण (चोरी) परस्त्री सेवन (कुशील) तथा अपरिमित कामना (परिग्रह) इन पांचों पापों से विरति अणुव्रत है। निरर्थिकां न कुर्वीत, जीवेषु स्थावरेष्वपि । अब हम उक्त पांचों अणुव्रतों पर संक्षिप्त प्रकाश डालने का हिंसामहिंसाधर्मज्ञः, काक्षन्मोक्षमुपासकः ॥ प्रयत्न करेंगे। इन्हीं आचार्य के द्वारा हिंसा की निन्दा करते हुए कहा गया है कि हिंसा से विरक्त व्यक्ति अपंग एवं रोगी होते हुए भी हिंसारत १. अहिंसाणुव्रत सर्वांग सम्पन्न व्यक्ति से श्रेष्ठ है। विघ्नों को शान्त करने के प्रयोजन न केवल अणुव्रतों का अपितु समस्त जैन आचार का मूल से की हुई हिंसा भी विघ्नों को ही उत्पन्न करती है और कुल के अहिंसा है। अहिंसा परमो धर्मः। श्रावकाचार के अन्तर्गत अहिंसा के आचार का पालन करने की बुद्धि से भी की हुई हिंसा कुल का सम्बन्ध में इतना ही लिखना अपेक्षित है कि गृहस्थ को स्थूल हिंसा विनाश कर देती है। यदि कोई मनष्य हिंसा का परित्याग नहीं करता श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना चिन्ता आग समान है, करे बुद्धि बल नाश । जयन्तसेन चिन्तन कर, फैले आत्मप्रकाश ॥ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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