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________________ महावीर युग, देश का स्वर्णयुग 9 (युवाचार्य श्री शिवमुनिजी महाराज) अमावस्या की काली-अंधेरी रात कार्तिक की अमावस्या के दिन अमीरी-गरीबी का वर्चस्व भी था। पूर्णिमा की रात्रि की तरह जग-मगा उठती है। सर्वत्र, ज्योति, दीपमालाएँ महावीर की प्रबुद्ध चेतना ने इन अपनी सौन्दर्य सृष्टि से नवआलोक का सृजन करती हैं? दीपों की विषमताओं और सामाजिक अत्याचारों कतारों की ज्योति के मध्य - “लक्ष्मी-पूजन" होता है। और एक नूतन के विरुद्ध सिंहनाद किया। उन्होंने - वर्ष का आशाओं और आकांक्षाओं के साथ आलिंगन किया जाता "ज्ञान-शक्ति तप-शक्ति, संघ शक्ति" है? इस महापर्व दीपावली का महत्व आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी तीनों ही शक्तियों द्वारा इन विषमताओं बहुत अद्भुत है क्योंकि यह जैन धर्म के अन्तिम तीर्थंकर महावीर को मिटाने का अथक प्रयास किया। स्वामी का “निर्वाण दिवस” है। ईस्वी पूर्व ५२८ नवम्बर में कार्तिक पशुहिंसा के विरोध में महावीर ने बड़े अमावस्या के दिन भगवान् का पावापुरी (बिहार) में परिनिर्वाण हुआ मार्मिक प्रवचन दिये। उनके प्रवचनों से युवाचार्यश्री शिवमुनिजी था! ही प्रभावित होकर भारत के “दिग्गज भगवान् महावीर जैन धर्म के २४ वें एवं अन्तिम तीर्थंकर थे। कर्मकाण्डी ब्राह्मण विद्वान्, यज्ञमण्डपों के यज्ञ की आहुति प्रज्ज्वलित महावीर का जन्म ई.पू. ५९९ चैत्र सुदी त्रयोदशी को वैशाली के किये बिना ही उठ गये और महावीर के शिष्य बन कर समता और कुण्डलपुर में हुआ। आप जाति के क्षत्रिय थे। आपके पिता का नाम अहिंसा के प्रबल प्रचारक बन गये। इन विद्वानों में सबसे श्रेष्ठ विद्वान सिद्धार्थ तथा माता का नाम त्रिशला था! “वर्धमान" महावीर के बचपन इन्द्रभूति गौतम थे। ये महावीर के प्रथम गणधर थे। जिन्होंने ४४०० का नाम था। परन्तु उनके अदम्य साहस, निर्भयता एवं कष्ट सहिष्णुता शिष्यों के साथ एक ही दिन में दीक्षा ली। नारी उत्थान एवं स्त्रियों के कारण उनका नाम “महावीर" रखा गया। र को पुरुषों के समान ही अध्ययन, स्वाध्याय तथा धार्मिक अनुष्ठानों जीवन के तीसवें वर्ष में महावीर ने राग से विराग की ओर का अधिकार प्रदान करने में महावीर ने बड़ा साहसिक कदम उठाया। अपने जीवन को बढ़ाया। साम्राज्य, राजमहल, सुन्दर पत्नी एवं पुत्री स्त्रियों को दीक्षित करके तो उन्होंने वैदिक विद्वानों को चकित कर आदि को त्याग कर जीवन के महामार्ग अर्थात “साधना" की ओर दिया। उनके धर्म संघ में ३६ हजार साध्वियां और लगभग ३ लाख कदम बढ़ाये! उपासिकाएँ थी। साधक जीवन में महावीर ने बहुत ही कष्ट, दुःख, परिषहों को भगवान् महावीर ने शूद्रों के धार्मिक अधिकारों का केवल समर्थन सहा, इस जीवन में उग्रतम एवं भयंकर तप करके आपने मोक्ष की ही नहीं किया, किन्तु अपने कथन को क्रियात्मक रूप भी दिया। प्राप्ति की। अज्ञात लोगों द्वारा आपको अनेक प्रकार के भयंकर त्रास उनका कहना था, जो व्रत का आचरण करेगा, सदाचार के नियमों दिये गये! आपके कानों में लोहे की तीक्ष्ण कीलें ठोक दी गई। का पालन करेगा उसकी सद्गति अवश्य होगी। चाहे वह शूद्र हो या भयंकरतम पीड़ा दी गई। परन्तु महावीर ने इन भीषणतम वेदनाओं ब्राह्मण। शुद्र में भी वही आत्म चेतना है, जो ब्राह्मण में है। मनुष्य को, पीड़ाओं को समता से सहन किया। उनका अन्त:करण स्वयं के कर्म से ऊँचा उठता है, जन्म या जाति से नहीं। भगवान महावीर ने कष्टों में वज्र-सा कठोर था, तो पर पीड़ा देखकर नवनीत (मक्खन) अनेक शद्रों को अपना शिष्य बनाया उनमें से कई तो बड़े ही तपस्वी की भांति पिघलने वाला भी था। गौशालक जैसे कष्ट देने वाले हए, जैसे हत्यारा अर्जुन माली, तस्कर रोहिणेय, श्वपाक जाति में व्यक्तियों पर भी उन्होंने करुणा की वृष्टि की! उनकी अन्तश्चेतना में जन्मे हरिकेशी आदि। समता का अखण्ड दीप सदा प्रज्ज्वलित था! महावीर के सिद्धान्त महान् थे। अहिंसा और अपरिग्रह की पावन महावीर ने केवलज्ञान प्राप्त किया और अरिहंत बने। भगवान विचारधारा के साथ ही जगत के वैचारिक कलहों का शमन करने के महावीर का तीर्थकर काल भारत वर्ष में लोक शक्ति के अभ्युदय का लिये भगवान महावीर ने 'अनेकान्तवाट' का सिद्धान्त बताया। उन्होंने. काल है। जनता में आध्यात्मिक विकास का स्वर्णिम युग है। भगवान् कहा - "सत्य के जिज्ञासु के लिये पहला नियम है, कि वह अनाग्रही महावीर के युग में यज्ञों में पशुओं की निर्मम आहुतियां दी जाती बने।” किसी भी धर्म व विचार पर आक्षेप न करे, उनका अनादर न थी। स्त्रियाँ धार्मिक अध्ययन व अनुष्ठानों में भाग लेने से वंचित थीं। करे। किन्तु विवेक तथा धैर्य के साथ वस्तु के सभी पहलुओं का शूद्रों की स्थिति बहुत दयनीय थी, उनको समाज में नीची एवं हेय चिन्तनकर सत्य का निर्णय करे। दृष्टि से देखा जाता था। शूद्रों के साथ अमानवीय कृत्य होते थे। इस सामाजिक विषमता के जहर के साथ ही शोषण, संग्रहखोरी एवं (शेष भाग पृष्ठ ३३ पर) भीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन मंथ/वाचना १९ For Private & Personal Use Only ऐसी वृत्ति नहीं भली, होत स्वयं को क्लेश । जयन्तसेन अवर मनुज, करे कभी ना द्वेष ॥ainelibrary, Jain Education International
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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