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________________ है, तब अन्दर प्रवेश करने वाले उसमें झुक कर प्रवेश करते हैं। दरवाजा तो पहले से ही झुका हुआ है, इसीलिए यदि कोई भी बड़ा आदमी घर में प्रवेश करेगा, तो वह भी झुक कर ही प्रवेश करेगा; अतः जो पहले से ही छोटा हो जाता है, उसके सामने बड़े से बड़ा भी छोटा हो जाता है। आपके सामने आने वाला व्यक्ति आईना है। उसमें आपका ही प्रतिबिम्ब झलकेगा। आप सगे, वह भी रानेगा; तनेंगे, आप झुकेंगे, वह भी झुकेगा-झुके बिना नहीं रहेगा। अतः यदि हम नम्र बनेंगे, तो हमारा आत्मिक विकास अवश्य ही होगा और हमारी नम्रता हमें परमेष्ठी भगवन्तों तक ले जाएगी, जो हमारी मंजिल है। नमो अर्थात् केवल नमस्कार नहीं हम 'नमो अरिहंताणं' बोलते हैं। इसका मतलब केवल अरिहन्त परमात्मा को नमस्कार मात्र नहीं है। इसमें अरिहन्त परमात्मा को नमस्कार तो है ही; साथ में अहंकार का त्याग भी है। इसमें समता का भी समावेश है। समता आये बिना नमन कैसे होगा? समता में अहंकार का त्याग तो होता ही है, साथ ही सब जीवों के प्रति समान भाव भी होता है न किसी के प्रति राग और न किसी के प्रति द्वेष समता में तो मित्ति में सव्वभूएस प्राणिमात्र के प्रति मैत्री का भाव समाया हुआ है। 'नमो' का उल्टा महामन्त्र नवकार का संदेश झुकने का संदेश है। यदि आप नहीं झुक सकते हैं, तो कोई बात नहीं; पर सामने वाले की बात सुन तो लीजिये। किसी की पूरी बात सुन लेना भी एक शिष्टाचार है। आप यदि 'नमो' को आचरण में नहीं ला सकते तो कम-से-कम नमो का उल्टा रूप ही आचरण में लाइये जानते हैं; नमो का उल्टा क्या होता है? नमो का उल्टा होता है 'मोन' अर्थात् 'मौन' बस आप मौन रह जाइये। यदि नमो याद नहीं रहे, तो मौन रह जाइये। पर अन्त में परमेष्ठी भगवन्तों की निकटता पाने के लिए 'नमो' को तो सीखना ही पड़ेगा। उसे सीखे बिना काम चलेगा ही नहीं। नम्रता और विनय जीवन विकास के मन्त्र हैं। ज्ञानी कहते हैं, झुको, ज्यादा-से-ज्यादा झुको; इतने झुको कि सामने वाले का दिल पसीज जाए। हमें ज्ञानियों की बातों पर विश्वास करना चाहिये। जगत् की बात पर भरोसा करेंगे, तो जगत् में ही उलझे रहेंगे और यदि ज्ञानी की बात पर भरोसा करेंगे तो ज्ञानवन्त हो जाएँगे; क्योंकि ज्ञानी परम आप्त है; वह वीतराग, सर्वज्ञ और केवल हितोपदेशी हैं। उनकी वाणी संसार सागर से बेड़ा पार कर देगी। जगत् जीव को उलझाता है; ज्ञानी जीव को पार लगाता है। ज्ञानी गुरु परम करुणामय होते हैं। वे जीव के भले की ही बात बोलते हैं। कहा गया है जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहँ दुखतें भयवन्त । ता दुखहारी सुखकारी, कई सीख गुरु करुणा धारि ॥ ज्ञानी गुरु ही हमें मंजिल तक पंच परमेष्ठियों तक ले जाएँगे। परदेशी और स्वदेशी इस संसार में सभी परदेशी हैं, स्वदेशी कोई नहीं। भारतीय भारत छोड़ कर अन्यत्र जाता है तो वह परदेशी माना जाता है और श्री अभिनंदन मंगाना 20 Jain Education International अन्य देश से कोई भारत में आता है तो वह भी परदेशी माना जाता हैं. तो यहाँ सब परदेशी हैं, स्वदेशी कोई नहीं। स्वदेश हमारा छूट गया है। उसे पाने के लिए ही तो यह सारा प्रयत्न है। स्वदेश इसलिए पाना है; क्योंकि स्वदेशियों में भिन्नता नहीं होती। वे सब समान होते हैं। स्वदेश में मोक्ष में असमानता होती ही नहीं संसार पराया देश है अतः इसमें असमानता ही है; इसीलिए संसार में दुःख है और मोक्ष में सुख स्वदेश चलें परमेष्ठी भगवान् तो स्वदेश पहुँच चुके हैं; इसलिए उनमें किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं है परदेश अपना नहीं है; हमारा यहाँ रहना उचित नहीं हैं। हमें स्वदेश की ओर चलना चाहिये चलो, हम स्वदेश की ओर चलें। यह तो परदेश है, यहाँ कभी भी तूफान आ सकता है यदि तूफान आ गया, तो उसमें हमारा बलिदान हो जाएगा; क्योंकि यहाँ हम परदेशी है। यहाँ खतरा ही खतरा है; दुःख-ही-दुःख है और केवल मात्र चतुर्गति में भटकना है; अतः यहाँ रहना इष्ट नहीं है। स्वदेश चलो। वहाँ कोई खतरा नहीं है कोई भटकाव नहीं है। दृढ़ संकल्प : मुश्किल भी आसान स्वदेश गमन का मार्ग कठिन जरूर है; पर यदि संकल्प दृढ़ हो, तो कठिन मार्ग भी सरल बन जाता है। स्वदेश के मार्ग में संकल्पपूर्वक प्रयाण करो; कठिनाइयाँ दूर होती जाएँगी। दृढ़ संकल्प करने वाला व्यक्ति आधी मंजिल तो पहले ही तय कर लेता है। यहाँ से अपने घर जाना हो, मारवाड़ जाना हो, तो रास्ते में कितनी तकलीफें है। लोग घर जाकर कहते हैं गाड़ी में इतनी भीड़ थी कि खड़े रहने को भी मुश्किल से जगह मिली। गाड़ी में लोगों के धक्के खा-खा कर बड़ी मुश्किल से किसी तरह घर पहुँचे हैं और राहत की साँस ली है। घर जाना था, तो धक्के भी खा लिये और अनेक मुसीबतें भी सहन कर लीं; पर यहाँ धक्का दें, तो फिर वापिस कभी अन्दर ही नहीं आयें। गाड़ी में बार-बार धक्के खाने पर भी अंदर घुसने का प्रयत्न करेंगे पर यहाँ धक्का खायेंगे तो बाहर ही रह जाएँगे। अन्दर नहीं आयेंगे। गाड़ी की तकलीफ महसूस क्यों नहीं होती? इसलिए कि हममें घर जाने की उमंग है। अपने गाँव जाने का सुदृढ़ संकल्प है। यह उमंग, यह दृढ़ संकल्प गाड़ी की भीड़-भाड़ तकलीफ़ महसूस नहीं होने देती। हम अपने गाँव अवश्य पहुँच जाते हैं। जहाँ परमेष्ठी, वहाँ स्वदेश पंच परमेष्ठी भगवान् स्वदेश पहुँच चुके हैं। हमें भी उन परमेष्ठियों के पास पहुँचना है। हमारा भी स्वदेश वही है उस देश की ओर जाने में कठिनाइयाँ तो आयेंगी ही। इतना ही नहीं, हमें त्याग भी करना होगा और साथ में आत्म विश्वास भी जगाना होगा। मार्ग की बाधाओं से डर कर बीच में ही रुक जाने का मन हो सकता है, पर हमें रुकना नहीं हैं। जब तक मंजिल प्राप्त नहीं होती, हमें चलते रहना है, किसी भी तरह अपनी मंजिल को पाना है। For Private & Personal Use Only काम क्रोध मद लोभ की, दिल में लगी दुकान । जयन्तसेन हुआ सदा, नष्ट भ्रष्ट ईमान ॥ www.jainelibrary.org
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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