SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यहीं रह जाएगा सब परमेष्ठी भगवान अब, जब तक चित्रकार / विचित्रकार तो कहते हैं, परमेष्ठी भगवान् स्वदेश प्राप्त कर स्वदेशी हो एक बार राजा कपिल के सामने दो कलाकार उपस्थित हुए। गये, पर हम अभी तक परदेशी ही हैं। अब, जब तक अपना उनसे एक था चित्रकार, दूसरा विचित्रकार। राजा ने चित्रकार से अपने महल संबन्ध नहीं जुड़ता, तब तक तो परदेश में ही भटकना है। परदेश की एक दीवार पर चित्र बनाने के लिए कहा। उसके ठीक सामने में तो केवल भटकना ही पड़ता है; वहाँ कोई ठौर-ठिकाना थोड़े ही वाली दीवार विचित्रकार को दी गयी और कहा गया कि तुम भी इस होता है। पराये देश में आप अपना निवास स्थान भले ही बना लें दीवार पर अपनी विचित्र कारीगरी दिखाओ। पर आखिर आप हैं तो परदेशी ही। जब कभी वहाँ से भागना पड़ेगा दोनों का काम शुरू हुआ। दोनों कलाकारों के बीच पर्दा था। तो सब कुछ वहीं धरा रह जाएगा. अफ्रीका में क्या हुआ; आप जानते दोनों ने अपना काम शुरू किया। चित्रकार ने सबसे पहले अपनी ही होंगे। सभी विदेशियों को वहाँ से खाली हाथ भागना पड़ा। जो दीवार साफ की और फिर उसे चित्रांकित करना शुरू किया; पर जमा किया था; सब वहीं रह गया। पाकिस्तान निर्मित होते ही वहाँ विचित्रकार बड़ा विचित्र था। वह तो उस दीवार को घिसता रहा। के हिन्दुओं के लिए वह विदेश हो गया। बेचारे हिन्दुओं को वहाँ लगातार घिसे जाने के कारण वह दीवार इतनी चिकनी हो गयी मानो से जान बचाने के लिए सब धन-दौलत वहीं छोड़ कर भारत की दर्पण ही हो। फिर उस विचित्रकार ने उस पर कोई ऐसा रसायन ओर भागना पड़ा। तो यह हाल है स्वदेशियों का परदेश में। लगाया, जिससे वह दीवार बिल्कुल दर्पण का काम देने लगी। दोनों बुरे दोनों का काम पूरा हुआ। राजा उनका काम देखने गया। बेचारे परदेश में रहने वाले आँसू लेकर स्वदेश लौटे, खुशी चित्रकार ने अपनी कला से उस दीवार पर बड़े सुन्दर दृश्य प्रस्तुत लेकर नहीं। आदमी परदेश ले भी क्या जा सकता है अपने साथ! किये थे। चित्रकार की कारीगरी देख कर राजा बड़ा प्रसन्न हुआ। वे लोग अपनी सम्पत्ति दूसरे देश में क्यों जाने देंगे? परदेश में फिर राजा विचित्रकार के पास गया। दीवार देखकर राजा ने परदेशियों के लिए हम कुछ भी करें, पर अन्त में जब देश छोड़ने उससे पूछा, तेरी दीवार कोरी कैसे रह गयी? तूने अभी तक इस पर का समय आता है, सब निरर्थक हो जाता है; अत: जहाँ तक हो कोई दृश्य प्रस्तुत नहीं किया। सके, हमेशा स्वदेश का ही ध्यान रखना चाहिये, स्वदेश की ही सेवा तब विचित्रकार बोला - 'महाराज! मैंने अपना दिमाग लड़ा कर करनी चाहिये। बड़ी बुद्धिमानी से काम किया है, पर आप देख ही नहीं रहे हैं।' पर हम तो परदेश में हैं और यहाँ से कभी-न-कभी तो स्वदेश राजा बोला- 'क्या बकता है? दीवार पर तो कुछ भी दिखायी जाना ही है; इसलिए हमारा जो धर्म-धन है, उसे पूरी तरह सम्हाल नहीं देता।' लेना है। धर्म-धन अर्जित संपत्ति है। उस पर केवल हमारा ही अधिकार स इस पर विचित्रकार बोला - 'महाराज! इस दीवार पर कुछ है। है, इसलिए उसकी पूरी तरह से रक्षा करनी चाहिये। यह धर्म-धन यह दीवार बिल्कुल सामने वाली दीवार जैसी ही है।' बड़ा कीमती है। यह कहकर उसने दोनों दीवारों के बीच का पर्दा हटा दिया। 'नवकार' क्या सिखाता है? राजा ने आश्चर्य से देखा, सामने वाली पूरी दीवार अपने समस्त दृश्यों तो, स्वदेश लौटते वक्त हमें हमारा कीमती माल सम्हाल लेना समेत विचित्रकार के हिस्से की दीवार में प्रतिबिम्बित हो रही थी। चाहिये। 'आत्मज्ञान और महामन्त्र की आराधना' बड़ा कीमती माल राजा तो बस देखता ही रहा गया। कितनी सुन्दर बन गयी थी वह है। यह साथ में ही चलेगा। छूटेगा नहीं। ऐसी कोई ताक़त नहीं है, जो इसे हमसे छीन सके। यह महामन्त्र नवकार आत्म-धन का दर्शन राजा ने दोनों कलाकारों को उचित पारितोषिक से सम्मानित कर कराने वाला है, जीवन को वैभव-संपन्न बनाने वाला है और आत्मिक बिदा किया। वैभव को प्राप्त करने का मार्ग बताने वाला है। ऐसा यह महामन्त्र तो पंचपरमेष्ठी भगवान् सामने वाली दीवार पर है। हमें उस नवकार जब जीवन में प्राप्त हुआ है, तो इसकी गहराई में जाकर हमें विचित्रकार की तरह अपने मन को परमेष्ठी भगवन्तों के स्मरण द्वारा सोचना चाहिये कि नवकार क्या सिखाता है? इतना घिस लेना है कि वे स्वयं इसमें प्रतिबिम्बित हो उठें; यही हम हमेशा सांसारिक विचारों में उलझे रहते हैं। हमारा चिन्तन सर्वोत्तम कारीगरी होगी। संसार-सम्बन्धी बातों का ही होता है। हम इस महामन्त्र का चिन्तन नहीं करते। यदि हम इस महामन्त्र का जरा-सा भी चिन्तन करें और यदि परमेष्ठी भगवन्त अपने मानस-पटल पर प्रतिबिम्बित नहीं इसके मुख्य द्वार 'नमो' से इसके भीतर प्रवेश करें, तो हमें उसमें हुए हैं, तो समझ लेना कि अभी तक न तो हम चित्रकार बन सके अवश्य ही अपने मन के परिणामों का दर्शन होगा। हम यह जान हैं और न विचित्रकार। हम अपना जीवन यूँ ही खोये जा रहे हैं। जाएँगे कि हमारी अपनी स्थिति कैसी है? यदि हम नवकार मन्त्र को किसी ने बिल्कुल ठीक कहा है - शुद्ध हृदय से जपना शुरू करेंगे, तो अवश्य ही अल्प समय में हमें इस महामन्त्र की शक्ति का अचूक अनुभव हो जाएगा। यह नवकार रात गॅवाई सोय कर, दिवस गँवाया खाय। हमारे हृदय-पटल पर अंकित हो जाएगा। हीरा ज्यों मानव जनम, कौड़ी बदले जाय॥ ही दीवार!! श्रीमदजयंतसेनसार अभिनंदनाथ/वाचना ईर्ष्या आग प्रचंड है, करे सदा बेचैन । जयन्तसेन तजो इसे, पावो सुख अरु चैन Library.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy