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________________ विभिन्न लेखक : संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ : ६७ उपाध्याय श्री श्रमरमुनिजी महाराज मंगलमूर्ति सन्त अन्तरजगत् का यात्री जैन संस्कृति की साधना अंतःपरिमार्जन की साधना है, आत्मपरिष्कार की उपासना है. वह बाहर के वेष और कर्मकाण्ड की चमक-दमक में ही परिसमाप्त नहीं होती है. उसका मार्ग बाहर में उतना नहीं, जितना कि अंदर से होकर गुजरता है. यही कारण है कि महाश्रमण भगवान् महावीर ने मुक्ति की विवेचना करते हुए स्त्री, पुरुष, नपुंसक, ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य, शूद्र, स्वलिंग, अन्यलिंग सभी को आंतरिक वीतरागभाव की चरमपरिणति में मोक्ष होना प्रतिपादन किया है. मरुधरा के महान् सन्त श्रद्धेय हजारीमलजी महाराज इसी अन्तरंग साधनापथ के प्रशस्त यात्री थे. बाल्यकाल के पुनीत क्षणों में वे साधुत्व की निर्मल भूमि पर अवतरित हुए. तब से सतत, बिना किसी प्रकार का शोरगुल मचाये, विज्ञापनबाजी से दूर, मौनभाव से अंदर ही अंदर सद्गुरु- निर्दिष्ट अध्यात्मपथ पर अग्रसर होते रहे. आंधी आयी, तूफान आये, सुख-दुःख के भयंकर भंझावात उठे, परन्तु वे न कहीं रुके, न कहीं भटके. यौवनकाल के घनान्धकार में, विवेक एवं वैराग्य की मसाल लेकर, जिस शानदार ढंग से वे जीवन में प्रकाश फैला सके, मंजिल पर पहुँच सके वह भविष्य के साधकों के लिए मूर्तिमान् आदर्श बन गया. नख - शिख सरल क्या गृहस्थ और क्या सन्त, सभी साधकों की साधना का महाप्राण सरलता है, निष्कपटता है, अदंभता है. आत्मविशुद्धि के लिये सरलता जैसा अमोघ साधन, दूसरा और कौन है ? बाह्य आचार प्रचार न्यूनाधिक हो सकता है. क्षेत्र काल आदि की परिस्थितियों के अनुसार क्रियाकलाप में घटाव बढ़ाव सदा से क्षम्य रहा है और रहेगा. परन्तु जो भी हो, जितना भी हो, वह सरल शुद्ध भाव से हो, इसमें कहीं भी कभी भी दो मत नहीं हैं. घृतसिक्त पावक के समान सहज सरल साधना निर्धूम होती है, निर्मल होती है भगवान् महावीर ने कहा है सोही उज्जय-भूयस्स, धम्मो सुहस्स चिट्ठई, विश्व परमं ज घयसित्तेव पावए ! श्रद्धेय हजारीमलजी महाराज, सरल भाव की ज्योतिर्मय मूर्ति थे. वे काव्य की भाषा में नख शिख सरल थे, निर्दम्भ थे. मैंने उन्हें निकट से देखा है, ब्यावर और जयपुर के वर्षावास में उनके सतत् साहचर्य में रहा हूँ. मारवाड़ और मेवाड़ की दुर्गम विहार यात्रा में कितनी ही बार उन्हें परखा है, वे शत-प्रतिशत, सरल और अदम्भभाव की कसौटी पर खरे उतरे हैं. आचार सरल, विचार सरल, और परस्पर के सब व्यवहार सरल. जो भी किया, वह साफ, जो भी कहा वह भी साफ कहीं छुपाव नहीं, दुराव नहीं. वे नाक की सीधी राह चलने के आदी थे. अगल-बगल की चाल उन्हें पसन्द नहीं थी. अथवा यों कहिये कि वे टेढ़ी-मेढ़ी राह चलना ही नहीं जानते थे. सम्प्रदायातीत मानस स्वर्गीय श्रात्मा स्थानकवासी परंपरा के सन्त थे, ठुल-मुल नहीं, निष्ठावान् सन्त. स्थानकवासी आचार और विचार के प्रति मैंने उन्हें काफी सजग और सतर्क पाया है. परन्तु उसका यह अर्थ नहीं कि उनकी यह स्व-निष्ठा दूसरों के प्रति घृणा का भाव रखती थी. स्व-निष्ठा होते हुए भी दूसरों के प्रति उदार और उदात्त भावना कोई उनसे सीखा होता. मैंने उनके चरणों में जहाँ एक ओर स्थानकवासी भक्त श्रद्धावनत बैठे देखे हैं, वहाँ दूसरी ओर श्वेताम्बर मूर्तिपूजक, वैष्णव, आर्य समाजी आदि भक्त जन भी भाव-विभोर मुद्रा में दर्शन करते देखे हैं. मुनिश्री की तत्कालीन प्रसन्न मुखमुद्रा की वह दिव्यछवि Jain Education International For Private & Personal Use Only 306304303003030030030223083013003003003034 www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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