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________________ 200000*220****** ६६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय श्रमणसंघाचार्य श्रीआनन्दऋषिजी महाराज सरल हृदय सन्त स्वयं सन्मार्ग पर चलने और समाज को सत्पथ का बोध कराने के लिये सन्त-संस्था की उपयोगिता मानी गई है. ज्ञानदर्शन-चारित्र्य की त्रिपथगा मानवमेदिनी में प्रवाहित कर सन्त, जनसमुदाय में आध्यात्मिक अवगाहन की सुन्दर सुविधा प्रस्तुत करते हैं. सन्तों की इस शीतल निर्मलसलिला-सुरसरिता के अमृतोपम पयःपान से-भव्य प्राणी अपनी परमार्थपिपासा को शान्त करते हैं और इसी में निमज्जनोन्मज्जन कर कषायकलुष का प्रक्षालन करके सत्य, तथ्य और पथ्य की पुनीत प्रेरणा प्रदान करते हैं जो उनके जीवन को प्रशस्त बनाने में सहायक सिद्ध होती है. अतएव समाज की सुव्यवस्था के लिये आदर्श संघ की स्थापना करते समय वीतराग तीर्थंकर महावीर ने अपने साधुसाध्वी, श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध तीर्थ में संयमी वर्ग को मूर्धन्य स्थान देकर उसे आत्मकल्याण की साधना के दृढ़ संकल्प के साथ-साथ समाज में आत्मजागृति प्रस्तुत करने का उत्तरदायित्व भी सुपुर्द किया. श्रद्धेय स्वर्गीय श्रीहजारीमलजी महाराज आत्मसाधना के पवित्र पथ पर स्वयं चलते हुए सम्पर्क में आनेवाले जिज्ञासु जनों को भी सत्पथ की शिक्षा प्रदान करते थे. आपका स्वभाव बहुत ही सरल था. क्षमा, मृदुता आदि साधुगुण आपके अन्दर विशेष रूपमें विद्यमान थे. इन विशेषताओं के कारण मरुधरा (राजस्थान) के सुयोग्य सन्त के रूप में आप प्रख्यात हए. संघ-ऐक्य के कार्य से राजस्थान में विचरते समय आपके दर्शन का सुअवसर प्राप्त हुआ था. प्रत्यक्ष मिलन से आपके विशिष्ट स्वभाव का परिचय प्राप्त कर अंतःकरण में प्रमोदभावना जागृत हुई. आप अपने शिष्यसमुदाय एवं नेश्राय में रहे हुए सन्तों के साथ बहुत ही कृपापूर्ण मधुर व्यवहार रखते थे. आपकी छाप आपके सुयोग्य शिष्य श्रीमधुकर जी पर अच्छी दिखाई दे रही है. आप उच्चकोटि के विद्याभिलाषी, संयमनिष्ठ, महान गुणी सन्त हैं. आप गर्व से बहुत ही दूर रहते हैं. पृथक-पृथक सम्प्रदायों के कारण साम्प्रदायिकता के दोष, समाज में कलह, मतभेद आदि व्याप्त होते देख जब चतुविध संघ के नेताओं ने अपनी आवाज बुलन्द की, तब जिन मुनिवरों ने अपने साम्प्रदायिक मोह का त्याग कर संगठनतत्त्व को प्रोत्साहन देने का निश्चय किया, उनमें श्रद्धेय श्रीहजारीमल जी महाराज एक निष्ठावान् सन्त थे. आपने अपनी संप्रदाय-परम्परा को श्रमण-संघ में विलीन कर सांप्रदायिक प्रवर्तक पदवी का परित्याग कर दिया था. जो निष्ठा आपने संगठन के प्रति व्यक्त की उसका परिपालन जीवन-पर्यन्त किया. आपके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर श्रमणसंघ ने आपको संघ का प्रान्तीय मंत्री पद प्रदान किया. इस उत्तरदायित्त्व का परिवहन भी आपने कुशलतापूर्वक किया. आज आप अपने पार्थिव देह में विराजमान नहीं रहे, तथापि आपका यशः शरीर आज भी समाज की अन्तष्टि का विषय बना हुआ है. उस सन्त-जीवन की पुनीत पुष्पवाटिका से आज समाज सौरभान्वित हो रहा है. श्रमण के जिन आदर्श गुणों द्वारा आपने अपनी आत्मा को उत्कृष्ट बनाया, श्रमणगण स्वामीजी के इन गुणरत्नों की समाराधना से अपनी आत्मा को सफल बनाने की प्रेरणा प्राप्त करें, इसी भावना के साथ उस परम श्रदेय महान सन्त को मैं अपनी श्रद्धांजलि समर्पित करता हूँ. Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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