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________________ ६८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय 港茶茶器茶茶茶茶茶茶茶茶茶茶客茶茶苯并举 आज भी हृदयपटल पर अंकित हैं. एक ओर उनके मुख-कमल से जैन-सन्त आनन्दघन. देवचन्द, जयमल्लजी महाराज आदि के विचारोत्तेजक भजनों की मधुर मादक सुगंध प्रसूत होती थी, वहाँ दूसरी ओर मर्मी वैष्णव सन्तों के आध्यात्मिक पदों का पराग भी कुछ कम मोहक नहीं होता था. उनका निर्मल मानस सम्प्रदाय-विशेष से संबंधित होते हुए भी सम्प्रदायातीत था. वे व्यक्ति की अपेक्षा गुणों की पूजा को महत्त्व देते थे. सत्य कहीं भी हो, किसी का भी हो, वह सब उनका था और उसी समष्टिगत सत्य को वे मुक्त भाव से सरल, सरस आडम्बर हीन भाषा में समष्टि को अर्पण करते थे. विनम्र ही नहीं, प्रविनम्र सन्त विनम्रता की साक्षात् मूर्ति होता है. जिसे अहंकार छू गया वह सन्त कैसा ? क्योंकि अहंकार और साधुता का शाश्वत वैर है-'तेजस्तिमिरयोरिव'. भगवान् महावीर कहते हैं-धर्म का मूल विनय है-'धम्मस्य विणओ मूलं' सन्त श्रेष्ठ नानक, सन्तों की परिभाषा के सम्बन्ध में कहते हैं _ 'नानक नन्हें हो रहो जैसे नन्हीं दूब.' श्रीहजारीमलजी महाराज ऐसे ही विनम्र सन्त थे. विनम्र क्या, प्रकर्षताबोधक 'प्र' उपसर्ग लगाकर कहना चाहिए, वह प्रविनम्र सन्त थे. अपनी परम्परा के माने हुए, वयोवृद्ध, भक्त मंडल में यशस्वी, फिर भी इतने विनम्र कि आश्चर्यचकित हो जाना पड़ता था. निर्धन, धनी, बाल, वृद्ध, गृहस्थ, सन्त सभी के साथ उनका वह सहज उदारभाव था, हृदय और वाणी का वह विलक्षण माधुर्य था कि परिचय में आने वाला हर व्यक्ति गद्गद हो उठता था. उन्हें छोटे-से-छोटे साधुओं के समक्ष भी नतमस्तक नमस्कार मुद्रा में देखा है. मैं स्वयं उनसे आयु और दीक्षा में काफ़ी लघु हूँ, फिर भी मुझे उनसे वाणी और व्यवहार में वह सम्मान मिलता रहा है जिसकी कोई दूरस्थ कल्पना भी करे तो कैसे करे ? दया का देवता दया साधना का नवनीत है. करुणा की अनवरत रसधारा ही साधक की साधना-भूमि को उर्वरा बनाती है. दया धर्म की गंगा के महातीर पर ही अन्य सब धर्मों एवं सद्गुणों के कल्पतरु फूलते-फलते हैं. सन्त तो दया का देवता ही माना जाता है. वह स्व-पर का भेद-विभाव किये बिना सबको एक ही भाव से प्रेम और करुणा का, वात्सल्य और दया का अमृत वितरण करता है. सन्तों का हृदय नवनीत से भी विलक्षण स्नेहार्द्र होता है. नवनीत पर-ताप से नहीं, स्व-ताप से ही द्रवित होता है, किन्तु सन्त-हृदय का द्रवत्व सदैव पर-ताप से ही होता है, स्व-ताप से नहीं. श्रीहजारीमलजी महाराज ने स्वभावतः ही वह अद्भुत दयाई हृदय पाया था कि जिसके कारण उनकी साधुता प्रतिक्षण ज्योतिर्मय होती चली गई. परदुःखदर्शन तो क्या, परदुःख की कथा मात्र से ही उनका कोमल हृदय चन्द्रकान्तमणिवत् विचलित हो उठता था, आँखों से अश्रुधारा तक बह निकलती थी. वे आचार्य सिद्धसेन दिवाकर के शब्दों में--'त्वं नाथ दुःखिजन-वत्सल है शरण्य !' का सर्वतोभद्र मंगल रूप धारण कर लेते थे. अजर-अमर जीवन के धनी सन्त शब्द संस्कृतभाषा के सत् शब्द से बना है, जिसका अर्थ है---अविनाशी, अजर-अमर, त्रिकालाबाधित सत्त्व-सत्ता ! क्योंकि सन्त शरीर नहीं होता, आत्मा होता है. आत्मा का वह दिव्य तेज, जो महाकाल के अंधकार से न कभी आच्छादित हुआ है न आच्छन्न. वह कभी होगा भी नहीं. सन्त शरीर से मरकर भी आत्मा से अमर है. अपने दिव्य गुणों के प्रकाश से अविनाशी है. श्रीहजारीमलजी महाराज, भले ही देहाकार से हम में नहीं रहे हैं, परन्तु अपने दिव्यगुणों के भावाकार से तो अब भी हम सब में साक्षात् विद्यमान हैं. उनके साधुत्व का मूल रूप, अब भी हम सब के भाव-कक्ष में, ज्यों का त्यों विराजमान है. उनकी स्मृति, उनके निर्मल साधुत्व को अपने हृदय में सदा सर्वदा संजोये रखने में है. AN TERRANA ATTA Jain Education Internat personal or jainelbrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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